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“पटाखा तो भारतीयता की पहचान ही नहीं है फिर दिवाली पर इनको क्यों जलाना?”

श्री राम के वनवास से अयोध्या लौटने पर अयोध्यावासियों ने दीयों से उनका स्वागत किया था। वहां प्रदूषण फैलाने वाले पटाखों का कोई अस्तित्व नहीं था। जब त्रेतायुग में अयोध्यावासियों ने हमारे लिये पर्यावरण को सुरक्षित रखना ज़रूरी समझा फिर हम पर्यावरण की सुरक्षा ज़रूरी क्यों नहीं समझ रहें?

बीबीसी की एक खबर में भारत में पटाखों के इतिहास के बारे में बताया गया है। खबर में बताया गया है कि पंजाब यूनिवर्सिटी में इतिहास पढ़ाने वाले ‘राजीव लोचन’ के अनुसार पटाखों से शोर करना चीन की परम्परा थी। चीन में पहले मान्यता थी कि पटाखों के शोर से डरकर बुरी आत्माएं, विचार और दुर्भाग्य भागेंगे और सौभाग्य प्रबल होगा। यह विचार शायद भारत में आतिश दीपांकर नाम के बंगाली बौद्ध धर्मगुरू ने 12वीं सदी में प्रचलित किया। वे शायद इसे चीन, तिब्बत और पूर्व एशिया से सीखकर आए थे।

दूसरे जानकारों के मुताबिक भारत में बारूद मुगल लेकर आये। औरंगज़ेब के बड़े भाई दारा शुकोह की शादी की पेंटिंग में लोग पटाखे जलाते देखे जा सकते हैं।

ऐसे में यह प्रश्न उन धर्म-संस्कृति के रक्षकों से है जो वैलेंटाइन्स डे पर प्रेमी युगलों के पीछे लठ लेकर पड़ जाते हैं,

दिवाली तो दीयों का त्यौहार होता है, आप हमारे त्यौहार को मनाने की विधि में घाल-मेल कैसे होने दे रहे हैं? वास्तव में संस्कृति की रक्षा चाहते हैं तो पटाखों पर प्रतिबंध की मांग क्यों नहीं करते? पटाखा तो भारतीयता की पहचान ही नहीं है फिर दिवाली पर पटाखे किस बात के? उन पर प्रतिबन्ध ना लगाने की ज़िद किस बात की?

बकरीद पर बकरों को बचाने की दलीलें देने वाले पटाखों का विरोध नहीं करते, जो करते भी हैं उनकी संख्या ऊंट के मुंह में जीरे के समान है। बाकी वाले जमकर पटाखा जलाते हैं। क्या पाखंड होता है इनका, बल्कि इनके पाखंड का तो पर्वत होता है। इनके पाखंड के पर्वत के समक्ष सुमेरु पर्वत भी बौना प्रतीत होता है।

पटाखा प्रेमी अपने विवेक को तो पहले ही मार चुके होते हैं फिर पर्यावरण को मारने पर उतारू होते हैं। ऐसे तो गाय, कुत्ता, बकरी, मुर्गी सबकी चिंता करेंगे, रक्षा करेंगे, रक्षार्थ हिंसा भी करेंगे लेकिन दिवाली पर आत्मविवेक की आत्महत्या करेंगे और हज़ारों के पटाखों को स्वाहा कर देंगे।

तब प्रकृति, प्राणी और वनस्पति सबको ताक पर रखेंगे और पटाखा जलाकर अपनी उदात्त छद्मता का यथार्थ परिचय देंगे। अपने छद्म की चद्दर बचाये रखने हेतु ऐसे-ऐसे घनघोर मूर्खतापूर्ण तर्क देंगे कि व्यक्ति को उनपर तरस आ जाये।

वे कहेंगे,

रात-दिन एयर कंडीशन्ड कमरों में बैठने वाले, निजी वाहनों में चलने वाले, धूम्रपान करने वाले, न्यू ईयर पर पटाखे चलाने वाले लोग हमें दिवाली पर पटाखे ना चलाने का ज्ञान ना दें। हम दिवाली पर पटाखे तो जलाएंगे ही।

ऐसे तर्कों पर तरस आता है। माने कि हमारा विवेक तो मर ही चुका है, विवेकहीन लोग उसे संजीवनी देने का प्रयास ना करें। हम पर्यावरण को बर्बाद कर रहे हैं, पर्यावरण को पहले से बर्बाद करने वाले लोग हमें रुकने की सलाह ना दें बल्कि खुशी मनायें कि उनके साथ कुछ लोग और जुड़ गए हैं, अब पर्यावरण जल्दी नष्ट होगा।

पटाखा प्रेमी अन्य पर्यावरण प्रदूषकों को रोकने की बजाय उन्हीं के कारवां में शरीक हो रहे हैं। यह रुकना चाहिए। वास्तविकता में पटाखा भारतीय संस्कृति और दिवाली का हिस्सा ही नहीं है फिर क्यों इन पर रुपये बर्बाद करें और क्यों पर्यावरण को नुकसान पहुंचाएं?

पटाखों पर बर्बाद करने वाले रुपयों को अन्य पुण्य कामों के लिए दान किया जा सकता है। उन्हें भी पर्यावरण हितैषी बनना चाहिये और अन्य प्रदूषकों के खिलाफ मुखर आवाज़ उठानी चाहिये।

अगली बार से दिवाली में, दीये जलायें, खुशियां मनाए, नाचे-गाए, खाए-खिलाए, अपनों से मिल आए बस पटाखे ना जलाए, पर्यावरण बचाए, त्यौहार की वास्तविकता बचाए।

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