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“क्या गोधरा कांड के लिए नरेन्द्र मोदी को माफी नहीं मांगनी चाहिए?”

गोधरा कांड

गोधरा कांड गुजरात

“हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई सब भाई भाई” के नारे के साथ भारत की एकता की बुनियाद को मज़बूत करने में इस देश का लगभग हर नागरिक जुटा है। नफरत की हवा तो कोई बहने नहीं देना चाहता है लेकिन फिर भी इस देश का कुछ इतिहास दंगो में लिप्त खून के धब्बों से लिखा हुआ मिलता है। दुर्भाग्य से इन दंगो में सत्ता के सफेद कपड़ों पर दाग नज़र तो आते हैं लेकिन सत्ता को दोषी कोई मानना नहीं चाहता, क्योंकि हर दल से जुड़े लोगों के कपड़ों पर खून के इल्ज़ाम तो नहीं लेकिन छींटे ज़रूर मिल सकते हैं।

चाहे हम 1984 के सिख दंगों की बात करें या 2002 के गुजरात और 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगो का ज़िक्र करें, हर दंगा हिन्दुओं और मुसलमानों की मौत बनकर आया। दुख इस बात से होता है कि राजनैतिक दल इन्हीं दंगों के बीच अपना स्वार्थ तलाश लेते हैं। हर वो बहने वाला खून लाल ही था लेकिन धर्म के नाम पर नफरत का ऐसा माहौल बनाया गया कि इंसान ही दूसरे इंसान का दुश्मन बन गया।

इन सबके बीच कॉंग्रेस के पूर्व सांसद एहसान जाफरी की पत्नी ज़किया जाफरी द्वारा दायर की गई याचिका पर सुप्रीम कोर्ट में आज सुनवाई होनी है। गुजरात दंगे में अपने पति और दो बच्चों को गंवाने के बाद इंसाफ की तलाश में ज़ाकिया दर-दर भटक रही हैं।

गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित एसआईटी ने अपनी रिपोर्ट में नरेंद्र मोदी समेत 59 लोगों को क्लीनचिट देते हुए कहा था कि उनके खिलाफ मुकदमा चलाने योग्य कोई साक्ष्य नहीं है। इसी जांच से असंतुष्ट ज़ाकिया ने अब सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है।

इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सुप्रीम कोर्ट ने नरेन्द्र मोदी को ‘मॉडर्न डे नीरो’ कहकर पुकारा था जिसने बच्चों और महिलाओं को मरने दिया और फिर जांच के समय कार्य में हस्तक्षेप किया।

गोधरा में ट्रेन जलाने की घटना के बाद जब 59 कारसेवक ज़िंदा जल गए, तब आग की उन्हीं लपटों के साथ सबसे भयावह सांप्रदायिक दंगे का आगाज़ हुआ जिसमें करीब एक हज़ार से भी ज़्यादा लोग मारे गए। माँ-बाप के सामने उनके बच्चों का कत्लेआम, घर की बहन-बेटियों के साथ बलात्कार और ना जाने कितने मस्जिदों, दरगाहों और मंदिरों को तोड़ा गया, कितने घर जलाए गए। इस तमाशा का ज़िम्मेदार उस सत्ता को क्यों ना माना जाए जो सत्ता इस तमाशे को रोकने में विफल रही।

अगर गुजरात सरकार इस दंगे में शामिल नहीं थी तब इसे रोकने में नाकाम होने पर माफी क्यों नहीं मांगी? यह सत्ता की विफलता ही थी जिसकी वजह से तमाशा इतना व्यापक हो गया।

लोग जब दंगों में मरते हैं तब खून का रंग धर्मों के हिसाब से अलग नहीं होता लेकिन जहां पर जो सत्ता है, वो अपने हिसाब से धर्मों का चौकीदार बनकर खून पर सियासत करती है। दंगों में मारे गए लोगों के कातिलों को सज़ा तो दूर, माफी तक नहीं मिल पाती। इंसाफ के लिए लड़ रहे लोग बस अदालतों के चक्कर लगाते-लगाते थक जाते हैं।

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