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मध्यप्रदेश चुनाव: “मुसलमानों के बाद अब दलितों पर बढ़ते अत्याचार का ज़िम्मेदार कौन?”

दलितों पर अत्याचार

दलितों पर अत्याचार

देश का दिल कहे जाने वाले मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव के लिए बहुत कम समय रह गए हैं। वहीं जनता की निगाह भी प्रत्येक चुनाव की तरह इस बार भी नेताओं की सफेद कमीज़ पर है। प्रचार का उन्माद गति पकड़ने लगा है। शुरुआत राज्य के विकास के मुद्दे से ज़रूर हुई लेकिन इसके पाकिस्तान पहुंचते देर नहीं लगेगी। राहुल गांधी चुनाव के मद्देनजर हज़ारों किलोमीटर दूर फ्रांस तक पंजा चला रहे हैं और राफेल पर प्रधानमंत्री मोदी को घेरने से नहीं चूक रहे हैं। वही मोदी-शाह को कमल खिलाने के लिए ज़्यादा दूर नहीं, बस पड़ोसी देश पाकिस्तान में कीचड़ फैलाने की दरकार है।

इन सब चुनावी हलकों से इतर दलित, आदिवासी और पिछले चार वर्षों से खामोश मुसलमान कहां खड़े नज़र आते हैं? मध्यप्रदेश, देश का एकमात्र राज्य है जहां सर्वाधिक 23 फीसदी आदिवासी आबादी है। दलितों की संख्या तकरीबन 15 फीसदी है। मुसलमानों की तादाद करीब 7 फीसदी के आस-पास है। इन तीनों नंबरों को मिला दें तब आंकड़ा 45 फीसदी तक पहुंच जाता है। मध्यप्रदेश में किसी पार्टी को सत्ता में आने के लिए औसत 40 फीसदी वोट की दरकार होती है। तो क्या आगामी चुनाव में ये तीनों समुदाय कुछ परिवर्तन लाने की स्थिति में हैं?

देश में विगत चार सालों से मुस्लिम समाज पर अत्याचारों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है। देश के अलग-अलग हिस्सों में बड़ी संख्या में भीड़ द्वारा मुसलमानों को निशाना बनाया गया। अखलाक से शुरू हुआ ये सांप्रदायिक भंवर अब भी बीच-बीच में ज़ोर पकड़ता रहता है। 2014 के बाद से देश में टोपी, दाढ़ी और गाय के नाम से भौकाल मचने लगा है। मुसलमानों के बाद देश में दलितों की स्थिति दयनीय हालात में पहुंचने लगी है।

भीमा कोरेगांव, अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार अधिनियम पर मचा घमासान, कासगंज में दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़ने पर सवर्ण जातियों द्वारा हमला, गुजरात में घुड़सवारी करने पर दलित युवक की हत्या का मामला और ना जाने कई ऐसे उदहारण हैं जिनसे नए भारत का दमन होता है।

इससे शर्मनाक और क्या हो सकता है जिसमें भाजपा के राज्य मंत्री वीके सिंह दलितों की कुत्तों से तुलना करने से नहीं हिचकते।

पिछले 7 दशकों की बात की जाए तो वर्तमान सत्ता में मुसलमानों और दलितों पर सबसे भयावह प्रकोप ढाया जा रहा है। महाराष्ट्र के नागपुर से सटे गढ़चिरौली में बारात से लौट रहे 37 आदिवासियों को पुलिस द्वारा नक्सली बताकर मार दिया जाता है। मतलब सत्ता का संदेश साफ है। देश की राष्ट्रीयता की अवधाराणा में देशभक्ति तो होगी लेकिन इसमें देश की आधी आबादी यानि दलित, मुस्लिम और आदिवासी शामिल नहीं होंगे।

लिंचिंग के विरोध में प्रदर्शन

इन समुदायों के लिए आज बात केवल अपने अस्तित्व का नहीं बल्कि उनके लिए सवाल अपनी आज़ादी और बुनियादी हकों का है। गाय ले जाने पर मुसलमानों को काटा जा रहा है, नाले की सफाई के लिए ज़बरदस्ती दलितों को नालियों में उतारकर मरने के लिए छोड़ दिया जा रहा है। आदिवासियों को प्राकृतिक संसाधनों की बेदखली से कमज़ोर करने की कोशिश की जा रही है। मैं गोरख पांडेय की कविता की चंद पंक्तियां यहां पेश करना चाहूंगा।

वे डरते हैं

किस चीज़ से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फौज के बावजूद ?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और गरीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे

गोरख पांडेय की इस कविता का आभास नरेंद्र मोदी को काफी अच्छे से है। इसलिए जेएनयू में कन्हैया कुमार को जेल में बंद कर दिया गया, चंद्रशेखर रावण पर रासुका लगा दिया गया। मंदसौर में किसानों पर बेदर्दी से गोलियां चलवाई गईं। दलित आंदोलन के समय चुन-चुनकर उन्हें मौत के घाट उतारा गया।

कई महीनों से मीडिया में यही चर्चा चल रही है कि विपक्षी पार्टी गठबंधन कर एकता कायम करेगी लेकिन वर्तमान देश को विपक्षी एकता की नहीं बल्कि सामाजिक एकता की दरकार है जो तीन राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अपनी ताकत दिखा सकती है। इन तीन राज्यों- राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में मुस्लिम, दलित और आदिवासी अत्याचार का ग्राउंड ज़ीरों है।

राजस्थान में मुसलमान सबसे ज़्यादा शिकार हैं, मध्यप्रदेश में दलितों पर अत्याचार अपने चरम पर है और छत्तीसगढ़ में हर आदिवासी को नक्सली बताकर जान से मारा जा रहा है। यदि इस चुनाव में यह एकता कायम नहीं हो सकी, तब 2019, यानि कि असल आज़ादी के वक्त सरकारी हथियार इन गरीब तबकों की ओर तान दी जाएगी जिससे निकलना एक नए संघर्ष को जन्म दे सकता है।

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