आज महान क्रांतिकारी और देश के नायक बिरसा मुंडा की जयंती है। वे मात्र 25 वर्ष की उम्र तक जीवित रहे लेकिन उसी आयु में उन्होंने अंग्रेज़ी हुकूमत की नींद हराम कर दी थी। बिरसा की लड़ाई सिर्फ अंग्रेज़ी हुकूमत के खिलाफ ही नहीं, बल्कि देश के शोषक समाज के खिलाफ भी थी। वे एक शोषण मुक्त समाज चाहते थे, जिसमें वंचित व आदिवासियों को उनका समुचित अधिकार प्राप्त हो। अंग्रेज़ों ने प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की जब कोशिश की, तब बिरसा के तीरों का उन्हें सामना करना पड़ा। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अंग्रेज़ तो चले गए लेकिन उनके साथ वाले ज़मींदार और पूंजीपति रूप बदलकर प्राकृतिक संसाधनों को लूटते रहे और आज भी लूट रहे हैं।
15 नवंबर, 1875 को जन्मे बिरसा की इच्छाशक्ति और साहस का अंदाज़ा आप इस बात से लगा सकते हैं कि मात्र 19 वर्ष की आयु में उन्होंने मुंडाओं (आदिवासियों का एक समुदाय) को एकजुट कर अंग्रेज़ों से ‘लगान माफी’ के लिए उलगुलान (आंदोलन) शुरू कर दिया था। उलगुलान का ऐसा प्रभाव हुआ कि वर्ष 1895 में बिरसा को अरेस्ट कर हज़ारीबाग सेंट्रल जेल में बंद कर दिया गया। इस दौरान भी बिरसा के साथियों व अनुयायियों ने उनके उलगुलान को जारी रखा। दो साल बाद जब वे जेल से निकले तब उन्होंने अंग्रेजों और ज़मींदारों के खिलाफ आंदोलन को और तेज़ कर दिया।
वर्ष 1898 में छोटा नागपुर इलाके में तीर-कमान से लैस मुंडा विद्रोहियों के सामने अंग्रेज़ी सेना को हार का मुंह देखना पड़ा। इसके बाद कई लोगों की बड़े पैमाने पर गिरफ्तारी हुई लेकिन बिरसा ने अंग्रेज़ों से साफ कहा कि छोटानागपुर पर आदिवासियों का हक है। बिरसा के अनुयायियों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। छोटा नागपुर के इस विद्रोह में सैकड़ों लोग शहीद हुए। युद्ध जारी था लेकिन सन् 1900 में अंग्रेज़ एक स्थानीय खबरी की मदद लेकर धोखे से बिरसा को गिरफ्तार करने में कामयाब हो गए। कुछ ही महीने बाद 25 वर्ष की उम्र में बीमारी की वजह से जेल में ही बिरसा का निधन हो गया।
बिरसा के उलगुलान ने अंग्रेज़ी सरकार को काफी डरा दिया था। फिर से कोई विद्रोह ना हो, इसके डर से मजबूर होकर अंग्रेज़ी हुकूमत ने आदिवासियों के हक की रक्षा करने वाला छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट, 1908 (सीएनटी एक्ट, 1908) पारित किया। यह एक्ट ना पारित हुआ होता, तो शायद आज झारखंड से आदिवासियों का अस्तित्व मिट चुका होता।
आदिवासी समाज शुरू से ही प्रकृति पूजक रहा है लेकिन कई तरह के अंधविश्वासों में घिरे होने की वजह से भी आदिवासी, शोषकों के आसान शिकार बन जाते थे। बिरसा ने आदिवासी समाज से अंधविश्वास को खत्म करने के लिए भी आंदोलन चलाया था।
कई सपने लिए आज के ही दिन 18 वर्ष पहले सन् 2000 में बिहार से अलग होकर झारखंड बना। शुरू में लगा कि आदिवासियों की इस धरती पर नया सूरज निकलने वाला है और झारखंड में खुशहाली की बयार बहने वाली है लेकिन 19वें स्थापना दिवस पर भी यहां की सरकार यह दावा नहीं कर सकती कि झारखंड में भूख से अब कोई नहीं मरता। इससे कोई भी इंकार नहीं करेगा कि आज झारखंड बहुत बदल चुका है लेकिन आज यहां किसी के हिस्से में सोने की रोटी है, तो किसी के हिस्से ठीक से ‘मांड़-भात’ भी नहीं है।
महान क्रांतिकारी बिरसा को मैं जोहार और सलाम पेश करता हूं। उम्मीद करता हूं कि आदिवासी समाज भी सम्मान और खुशी की ज़िन्दगी जिऐगा। उनके प्राकृतिक संसाधनों पर पहला हक उनका होगा। इसके लिए हर प्रकृति पूजक को बिरसा के विचारों को अपने अंदर जिंदा रखना होगा। उनको ठीक से समझना होगा कि वे विनाश की नहीं, असल विकास की राह बता गए हैं। सबको सम्मान से जीने की सीख दे गए हैं। शोषण और अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने की ताकत दे गए हैं।
जय जोहार-जय बिरसा।
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