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जानिए बिरसा मुंडा से जुड़ी कुछ रोचक बातें

बिरसा मुंडा

बिरसा मुंडा

भारत ही नहीं पूरे विश्व में स्वाधीनता संग्राम और जनसंघर्षों के इतिहास में बिरसा मुंडा का नाम विद्रोह शब्द को एक नहीं उसके कई नज़रिये से सार्थक करता है। औपनिवेशिक भारत में सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि में उनका संघर्ष केवल एक विदेशी सरकार या जल, ज़मीन, जंगल के लिए ही नहीं, बल्कि समकालीन सामंती व्यवस्था के खिलाफ भी था। इतिहास के इन सारे संदर्भों से काटकर बिरसा मुंडा को देखना उनकी वीरता और संघर्ष का अपमान है।

बिरसा मुंडा के बारे में जानकारी देते हुए पहला मन कोफ्त मुझे स्कूल के किताबों में सबसे पहले दिखी, जहां उनके बारे में पूरी जानकारी हज़ार दो हज़ार शब्दों में सीमित थी। कॉलेज के दिनों में जो किताबें उपलब्ध थीं, उनमें बिरसा मुंडा को सिर्फ औपनिवेशिक या राष्ट्रवादी नज़रिए से बताते की कोशिश थी। हर साल 15 नवंबर को मेरे ज़हन में बिरसा मुंडा की जन्मतिथि और 9 जून को उनकी पुण्यतिथि आधे-अधूरे राजनैतिक परिचय के साथ सामने आ रहे थे।

पता नहीं देश की सियासत तमाम नायकों या खलनायकों के साथ इस तरह की राजनीति क्यों गढ़ती है? बिरसा मुंडा ही नहीं, बल्कि बाबा साहब, भगत सिंह और कई नायकों के बारे में स्कूली किताबों और कॉलेज की लाइब्रेरियों में उपलब्ध जानकारियां नाकाफी हैं। ये अधूरी समझ और अंधेरे में लाठी भांजने के अलावा कुछ भी नहीं करते हैं।

बिरसा मुंडा के बारे में जानने की लालसा लेकर जब मैं पटना रेलवे स्टेशन के एक बुक स्टॉल में गया तब एक किताब पर नज़र पड़ी, जिसके पीछे लिखा हुआ था, ‘कोड़ों की मार से उघड़े काले जिस्म पर लाल लहू ज़्यादा लाल, ज़्यादा गाढ़ा दिखता है ना!’

जब मैं कवर पेज देखा तब पाया कि यह तो महाश्वेता देवी की किताब ‘जंगल का दावेदार’ है। किताब खरीद ली और सफर खत्म होने तक पूरी पढ़ डाली। यह किताब मुझे आदिवासी जनसंघर्ष और जननायक बिरसा मुंडा को जानने-समझने में ज़्यादा सटीक किताब लगी। जंगल के दावेदार जेल के दिनों के साथ-साथ उनके आंदोलन के संघर्ष के उन परतों को खोलती हैं, जिसको दबाए रखने की साजिश सुनियोजित तरीके से की गई थी।

सौभाग्यवश महाश्वेता देवी से मुलाकाल के दौरान जब मैंने उनसे पूछा तब उन्होंने बताया कि मेरे पूरे साहित्य में मेरी प्रिय किताब है जिसे लिखने में मुझे आठ साल का वक्त लगा। उसके बाद आदिवासियों पर उनके लिखे उपन्यास भी पढ़े। अग्निगर्भ, चोट्टी मुंडा का तीर, अरण्येर अधिकार, अंताल कौरव और निसंदेह महाश्वेता देवी के आदिवासी साहित्य ने मेरी एक नई समझ विकसित की।

बाद के दिनों में जब मेरे आदिवासी मित्र बने तब बेशक उनकी बोलचाल की भाषा तो नहीं सीख पाया लेकिन उनके जीवनशैली को ज़रूर समझने का मौका मिला। 

बिरसा मुंडा के जनसंघर्ष को समझते हुए यह कहा जा सकता है कि आदिवासी समाज को शोषण के नरकीय यातनाओं से मुक्ति दिलाने के लिए उन्होंने तीन स्तर पर काम करने की कोशिश की। पहला, सामाजिक स्तर, जिसमें उन्होंने अंधविश्वास और पाखंडों से निकलने के लिए शिक्षा और स्वच्छता के संस्कार पर अधिक ज़ोर दिया। दूसरा, ज़मीनदारों और जागीदारों के आर्थिक शोषण से मुक्ति के लिए सामाजिक स्तर पर चेतना विकसित करने की कोशिश की और बेगारी प्रथा के खिलाफ संघर्ष किया। तीसरा, राजनैतिक स्तर पर आदिवासियों को संगठित व एकत्रित किया।

1882 में अंग्रेज़ों ने ‘इंडियन फॉरेस्ट एक्ट’ लागू किया और आदिवासियों को ज़मीन के लिए जंगल से बेदखल करना शुरू किया। इसके प्रतिरोध के लिए 1898 में बिरसा मुंडा ने आदिवासी समाज को संगठित आंदोलन के लिए प्रेरित करने के लिए डोम्बार पहाड़ियों पर मुं‍डाओं की विशाल जनसभा की, जिसमें आंदोलन की पृष्ठभूमि तैयार की गई।

24 दिसम्बर 1899 को बिरसा पंथियों ने अंग्रेज़ों के खिलाफ प्रसिद्ध मुंडा विद्रोह छेड़ दिया और हथियार उठा लिए। यही से उलगुलान का आगाज़ हुआ। तीरों से पुलिस थानों पर आक्रमण करके उनमें आग लगा दी गई।

5 जनवरी 1900 तक पूरे मुंडा अंचल में विद्रोह की चिंगारियां फैल गई और ब्रिटिश फौज ने आंदोलन का दमन शुरू कर दिया। आदिवासी जंगलों में छिप गए और वहीं से विद्रोह को संचालित करने लगे। 9 जनवरी 1900 को अंग्रेज़ों की सेना ने उन्हें डोम्बार पहा‍ड़ी पर घेर लिया और एक घमासान युद्ध की शुरुआत हुई, परन्तु गोला बारूद के आगे तीर-कमान कितना प्रतिरोध कर पाता और अंत में वीरता से लड़ते हुए बिरसा मुंडा के साथी बड़ी संख्या में शहीद हुए।

गिरफ्तार किये गए मुंडाओं पर मुकदमे चलाए गए जिसमें दो को फांसी, 40 को आजीवन कारावास, 6 को चौदह वर्ष की सज़ा, 3 को चार से छह वर्ष की जेल और 15 को तीन वर्ष की जेल हुई। अब भी बिरसा अंग्रेज़ों की पकड़ से दूर रहकर भूमिगत हो गए। बिरसा मुंडा काफी समय तक पुलिस की पकड़ में नहीं आए और 3 मार्च 1900 को गिरफ्तार हो गए।

बिरसा मुंडा के संघर्षों की वजह से ही छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट, 1908 (सीएनटी) झारखंड क्षेत्र में लागू हुआ, जो आज भी बरकरार है। यह एक्ट आदिवासी भूमि को गैर आदिवासियों में हस्तांतरित करने पर प्रतिबंध लगाता है और साथ ही आदिवासियों के मूल अधिकारों की रक्षा करता है।

मात्र 25 वर्ष के उम्र में उनकी मृत्यु को लेकर जो तथ्य दिए जाते हैं, वह वास्तविकता से मेल नहीं खाते। बिरसा मुंडा नहीं रहे लेकिन अंग्रेज़ी हुकूमत खत्म होने के बाद भी उनके विचारों ने लोगों को संगठित और प्रेरित किया। यह कहना गलत नहीं होगा कि बिरसा मुंडा के विचार आज भी आदिवासी समुदाय को संघर्ष की राह दिखा रहे हैं।

आदिवासी समाज के लोगों में कोई खास  बदलाव तो नहीं हुए लेकिन धीरे-धीरे ही सही लोग शिक्षित ज़रूर हो रहे हैं। वे अपनी सभ्यता और संस्कृति को लेकर काफी सचेत भी हैं। परंतु, जल, ज़मीन और जंगल को लेकर औपनिवेशिक शासन के साथ जो उनका संघर्ष था, वह अब मौजूदा सत्ता से है।

आदिवासियों का संघर्ष 18वीं शताब्दी से चला आ रहा है। 1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के गदर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे। सन् 1895 से 1900 तक बिरसा या बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला।

आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज़ उठाते रहे। मौजूदा दौर में आदिवासियों की समस्याएं नहीं, बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं। सब कुछ वही है। अगर कुछ नहीं है तो वह आदिवासियों के लिए उनके चेतना के मुख्य स्त्रोत भगवान बिरसा मुंडा।

आदिवासी समाज के जननायकों के संघर्षों की उपयोगिता को देश-समाज के लोगों के साथ रूबरू करवाकर ही हम प्राकृतिक संसाधनों पर लूट की कोशिश को रोक सकते हैं। प्राकृतिक संसाधन का संरक्षण क्यों ज़रूरी है, इसके प्रति भी लोगों को सचेत कर सकते हैं।

नोट: इस लेख में प्रयोग किए गए आंकड़े महाश्वेता देवी की किताब ‘जंगल का दावेदार’ से लिए गए हैं।

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