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“क्या रामायण सीरियल ने राम जन्मभूमि आंदोलन को बल दिया था?”

साल 2011 में अपने रोज़गार के सिलसिले में मैं गुड़गांव में था। 30 मार्च 2011 बुधवार का दिन था, एक सामान्य दिन जहां भीड़-भाड़ और ट्रैफिक के कारण गुड़गांव की सड़कें रेंग रही होती हैं लेकिन उस दिन भारत और पाकिस्तान के बीच विश्वकप का सेमीफाइनल खेले जाने की वजह से नज़ारा कुछ और ही दिख रहा था। टेलीविज़न के सामने सारा भारत उमड़ आया था और क्या सड़कें, गलियां, गांव, शहर, सब रुक गया था उस दिन।

दोपहर के समय भारी सुनसान सड़कें इस बात को बयां कर रही थीं कि भारत देश आज एक हो गया है। उस दिन भारत मैच जीत गया था, रात को पटाखों के साथ-साथ जश्न अपने चरम पर था लेकिन दूसरे ही दिन भारत सामान्य था, सड़के, गलियां, शहर, गांव सब सामान्य थे। उसके बाद इस तरह का नज़ारा व्यक्तिगत रूप से देखने को नहीं मिला।

इस तरह का नज़ारा पहले तब होता था जब हर रविवार सुबह 9 और 10 के बीच पूरा भारत टेलीविज़न के सामने उमड़ जाता था, कारण था रामानंद सागर द्वारा निर्देशित धारावाहिक रामायण।

यह धारावहिक, साल 1986-87 और 1988 के बीच हर रविवार सुबह 9 से 10 के बीच दूरदर्शन पर प्रसारित होता था। धीरे-धीरे इसके साथ लोग इतनी तादाद में जुड़ गए कि यह धारावाहिक से ज़्यादा एक धार्मिक प्रसंग बन गया। हर व्यक्ति की धार्मिक आस्था इस धारावाहिक के साथ-साथ और प्रफुल्लित और जागृत हो रही थी।

मुझे याद है उस समय हमारे घर में टेलीविजन था, मेरे ताया जी को शौक था और हम अकसर पंजाबी फिल्म उसपर देखा करते थे। रामायण के समय हमारे पड़ोसियों का ठिकाना भी हमारा घर ही हुआ करता था। बहुत खुशी होती थी श्री राम को टेलीविज़न पर देखने में। श्री राम के किरदार में मौजूद अरुण गोविल, उनका सदा हुआ अभिनय, एक मंत्रमुग्ध मुस्कान, चुने हुए शब्दों का संवाद मन मोह लेता था।

श्री राम के बारे में जिस तरह से कहा जाता है कि वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं उसी के स्तर को पूरी तरह से टेलीविज़न के पर्दे पर श्री राम के किरदार में मौजूद अरुण गोविल ने जीवित कर दिया था। उस समय आम हिंदुस्तानी अरुण गोविल को ही श्री राम की तरह सम्मानित करने लगे थे।

इसी धारावाहिक के ज़रिए मैंने बहुत सारे इंसानी अनुभवों को देखा और महसूस किया था। हमारे यहां मौजूद लोग जिनमें ज़्यादातर हिंदू थे उनके लिए सबसे आनंदमयी अवसर तब आया था जब श्री राम, सीता जी के स्वयंवर में विजयी होते हैं और श्री राम और सीता जी का विवाह होता है। डोली अयोध्या पहुंचती है, इसके पश्चात श्री राम को अयोध्या का राजा बनाने की तैयारी होती है।

सबसे दुख का अवसर, जब श्री राम को वनवास दिया जाता है, जहां सीता जी और श्री लक्ष्मण भी उनके साथ चलने की ज़िद करके उनके साथ चलते हैं।

यह धारावाहिक का अहम मोड़ था, जहां राजा दशरथ बहुत ज़्यादा गमगीन थे। देवी कौशल्या जो कि श्री राम की माता थीं, वह बहुत ही ज़्यादा दुखी थीं, उनके आंसू रुक नहीं रहे थे, पूरा माहौल इतना गमगीन था मसलन आज श्री राम जीवित हैं और उन्हें वनवास दिया जा रहा है। यहां मैंने इस तथ्य को देखा कि हमारे ही घर में मौजूद कई ऐसे पड़ोसी थे खासकर महिलाएं जिनकी आयु काफी थी उनके भक्तिभाव में आंसू रुक नहीं रहे थे।

उस दिन का धारावाहिक तो खत्म हो गया लेकिन वह सारा हफ्ता मसलन एक उदास माहौल की तरह बीत रहा था, जहां स्कूल, क्रिकेट का मैदान, आस-पड़ोस, सब जगह श्री राम के वनवास की चर्चा ही हो रही थी।

यहां हिंदू धर्म, इतिहास, वेदों इत्यादि का इतना ज़्यादा प्रचलन हो गया था कि मेरे ही क्लास के सहपाठी अब ब्रह्मचर्य होने की बात कर रहे थे और इस खोज पर इस तरह हामी भर रहे थे कि हमने इस हथियार की खोज तो सदियों पहले कर ली है। हमें अब परमाणु बम बनाने की क्या आवश्यकता है, मसलन जहां बेरोज़गारी अपने चरम पर थी, टेलीविज़न, फ्रिज़, कार, दोपहिया किसी-किसी के घर में थे अब वह सब अचानक अपनी मूलभूत सुविधाओं को भूलकर, धार्मिक स्तर पर खुद को सर्वश्रेष्ठ मान रहे थे।

यह वही समय था जब 1984 में श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात हुए सुनियोजित सिख कत्लेआम को अभी कुछ ही साल हुए थे। पीड़ितों के ज़ख्म ताज़ा थे।

भोपाल गैस कांड, राजीव गांधी का अयोध्या में शिलान्यास करवाना इत्यादि सभी तरह की घटनाएं, धारावाहिक रामायण की आड़ में लुप्त हो रही थीं। वहीं दूसरी ओर भाजपा, विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंक सेवक संघ (आरएसएस) इत्यादि समर्थित राम जन्मभूमि आंदोलन अपनी नई ऊंचाइयां छू रहा था।

इसी सिलसिले में जहां टेप ऑडियो कैसेट द्वारा अति उत्तेजित भाषण आम जनता में बांटे जा रहे थे, वहीं रामायण में अब रावण की भूमिका को भी सृजित कर दिया गया था। शूर्पणखा के नाक-कान लक्ष्मण द्वारा काट दिये गये थे लेकिन हमारे ही घर में मौजूद महिलाओं पर इसका कोई असर नहीं हो रहा था। कहीं कोई इस हिंसा से दुखी नहीं था क्योंकि शूर्पणखा एक असुर थी और उसका दोष बस इतना था कि वह लक्ष्मण पर मोहित हो गई थी।

जब सीता माता का अपहरण रावण द्वारा होता है तो मेरे ही घर में सभी मौजूद महिलाएं क्रोधित भी थीं और दुखी भी। शायद आस्था के लिहाज़ से सीता माता का दर्ज़ा शूर्पणखा से बहुत ऊंचा था।

तब ही शूर्पणखा के घायल होने पर किसी को फर्क नहीं था। खैर, आगे युद्ध होता है, हिंसा जहां अपने चरम पर बताई जाती है एक तीर से सैकड़ों तीर निकलते हैं, जहां श्री लक्ष्मण के घायल होने पर हमारा पूरा घर दुखी था वहीं इंद्रजीत, कुंभकर्ण और रावण की मौत पर बहुत ज़्यादा उत्साहित।

दोनों जगह हिंसा बराबर थी लेकिन एक जगह हम दुखी थे और एक जगह बहुत ही उत्साहित। रावण, कुंभकर्ण और इंद्रजीत की मौत से हमें कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। इसके विपरीत हम आनंदमयी थे, मसलन रावण, कुंभकर्ण और इंद्रजीत से हमारे जज़्बात खत्म हो गये थे। मतलब समाज हम और वह में बांट दिया गया था, जहां एक तरफ हमारे जज़्बात बिल्कुल खत्म कर दिये थे।

शायद यही कारण है कि साल 1984 में सिख समुदाय को जलाकर मारे जाने पर उनके आस-पास दंगाई नाच रहे थे। इस तरह का अमानवीय व्यवहार तब ही मुमकिन है जब समाज के एक तबके के साथ इंसानी जज़्बात का रिश्ता ही खत्म कर दिया जाए। यहां भी हिंसा थी लेकिन हम और वह की तर्ज़ पर एक समुदाय के साथ जज़्बाती रिश्ते, व्यवहार ज़मीनी स्तर पर खत्म कर दिए गए थे।

यही कुछ हमें 1992 अयोध्या बाबरी मस्जि़द के बाद हुए दंगो में और 2002 में गुजरात दंगों में देखने को मिला है, जहां बहुत अमानवीय तरीके से अल्पसंख्यक समुदाय मुसलमान को जान-माल से मारा गया है।

जहां रावण, इंद्रजीत, कुंभकर्ण को असुर कहकर उनकी मौत को जायज़ ठहराया जा रहा था उनसे हमारे जज़्बात नहीं जुड़ने दिए जा रहे थे वहीं 1984, 1992 और 2002 सभी दंगो में सिख और मुस्लमान समाज को आतंकवादी, राष्ट्रद्रोही, देशद्रोही, इस तरह के शब्दों से पहचान करवाई जा रही थी।

‘यह समाज देश के लिये एक खतरा है’, इस तरह के चिन्ह पैदा किये जा रहे थे और भारतीय मीडिया इन शब्दों को बड़े-बड़े टाइटल दे रहा था। यकीनन 1984, 1992 ओर 2002 के दौरान सिख और मुसलमान समाज के साथ इंसानी जज़्बात खत्म कर दिये गये थे, जहां मौत जायज़ बताई जा रही थी। शायद यही वजह है कि हर जगह, हर दंगे के बाद दोषी राजनीतिक पार्टी आने वाले चुनाव में भारी मतों से विजयी हो रही थी और दशकों के बाद भी हमारी न्यायपालिका, न्याय व्यवस्था इन दंगों में किसी को भी दोषी ना ठहराने से खुद को लाचार साबित कर रही है।

अगर हम धारावाहिक रामायण की बात करें तो श्री राम और रावण के युद्ध में दोनों जगह हिंसा थी लेकिन इसी हिंसा का कारण एक जगह जायज़ था और एक जगह नहीं। मसलन राम जहां सीता माता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिये युद्ध कर रहे थे वहीं रावण को घमंडी, ताकत में चकनाचूर, तानाशाह, हर पहलू से इंसानियत की नज़र में घातक दिखाया जा रहा था।

धारावाहिक रामायण के आखिर में युद्ध में रावण का पूरा कुनबा मारा गया लेकिन हमारे घर में मौजूद किसी को कोई दुख नहीं हुआ, क्योंकि श्री राम द्वारा किया गया युद्ध, जो हिंसा भी था उसके कारण जायज़ बताया जा रहा था। या ऐसा कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर वह सारे कारण जायज़ कर दिये गये क्योंकि अगर सीता माता एक नारी के मान सत्कार के लिये युद्ध जायज़ है तो शूर्पणखा का क्या गुनाह था?

अब अगर इसी सिलसिले में देखें तो 1984 का सिख कत्लेआम, जहां श्रीमती इंदिरा गांधी का कत्ल एक कारण बताया गया वहीं 2002 के गुजरात दंगों में गोधरा कांड के कारण को उभारा गया। हिंसा सभी जगह थी लेकिन एक जगह जायज़ और दूसरी जगह नजायज़ बताने में ज़मीनी स्तर पर बहुत पहले से घटनाक्रम बनाये गये थे।

खैर, धारावाहिक रामायण 1988 में पूरा हो गया। 1989 में राजीव गांधी की सरकार चली गई और राम जन्मभूमि के मुद्दे पर भाजपा जो कि 1984 में सिर्फ 2 लोकसभा सीट तक सीमित थी अब 1989 में इससे बहुत आगे निकल गई थी। यहां तक कि जनता दल के साथ एक गठबंधन सरकार के रूप में दिल्ली पर काबिज़ थी।

राम जन्मभूमि के सिलसिले में आडवाणी का रथ सोमनाथ से निकाला गया जो मेरे ही घर के पास से गुज़रती सड़क से निकला था। इसमें वे सब शामिल थे जो मेरे घर पर धारावाहिक रामायण देखने आते थे। जिनकी यादों में अरुण गोविल के रूप में अभी श्री राम बहुत ज़्यादा उभर आये थे।

मेरा यह व्यक्तिगत रूप से मानना है कि रामायण धारावाहिक ने राम जन्मभूमि के आंदोलन को बहुत निखार दिया था और कहीं ना कहीं इसका फायदा भाजपा को राजनीतिक रूप से भी हुआ था।

शायद यही वजह थी कि धारावाहिक रामायण में सीता का अभिनय करने वाली महिला अदाकारा दीपिका बाद में भाजपा की टिकट पर वडोदरा से लोकसभा सीट के लिए चुनी गईं और इसी धारावाहिक में रावण का अभिनय करने वाले अरविंद त्रिवेदी भी भाजपा के टिकट से 1991 में सांसद चुने गये।

मसलन धारावाहिक रामायण के बाद श्री राम का नारा बहुत ज़्यादा प्रफुल्लित हुआ। राम जन्मभूमि के मुद्दे पर हिंदू-मुसलमान समाज में और दूरियां बढ़ी, दंगे हुए, लोग मारे गये लेकिन समाज को हम और वह में बांट दिया गया। हिंसा को जायज़ और नाजायज़ ठहराया गया।

शायद यही कारण है कि 1984, 1992, 2002 के दंगों में किसी नामी व्यक्ति से लेकर आम व्यक्ति तक को सज़ा नहीं हुई है अगर हुई भी है तो नाममात्र। धारावाहिक रामायण, राम जन्मभूमि आंदोलन, राजनीति, दंगे इन सबके मद्देनज़र हम देख सकते हैं कि किस तरह समाज को आस्था के नाम से उग्र किया जाता है, मारा जाता है और जायज़ भी ठहराया जाता है।

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