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“भाजपा और काँग्रेस के चुनावी वादों में शिक्षा क्यों नहीं?”

छात्राएं

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अपनी दयनीय स्थिति के कारण बीमारू कहे जाने वाले राज्य जैसे बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में से इन दिनों एमपी में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। इन बीमारू प्रदेशों में 5 से 14 साल के बीच की स्कूल जाने वाले विद्यार्थियों की आबादी 43 फीसदी है। ऐसे में ज़ाहिर सी बात है कि हमारे देश के भविष्य की तकदीर इन्हीं विद्यालयों में लिखी जा रही है।

सबसे पहले शिक्षा को लेकर ज़रूरी संसाधनों की बात करते हैं। 1966 में कोठारी आयोग ने कहा था कि शिक्षा पर जीडीपी का 6 फीसदी खर्च होना चाहिए लेकिन अभी तक ऐसा नहीं हो पाया। मज़े की बात यह भी है कि मध्य प्रदेश चुनाव में दो मुख्य दल (काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ), दोनों में से किसी ने भी अपने चुनाव के मैनिफेस्टो में इसका ज़िक्र तक नहीं किया है।

एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश में 574 ऐसे विद्यालय हैं जो सिर्फ एक-एक शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं। रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि जब एक शिक्षक छुट्टी पर चले जाते हैं तब बच्चों के पास खेलने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता है।

यदि हम शिक्षक-शिक्षिकाओं की बात करें तब इस समय मध्य प्रदेश के पब्लिक स्कूलों में करीब 65,000 पद खाली पड़े हैं। मध्य प्रदेश के सरकारी विद्यालयों की हालत यह है कि शिक्षकों को नौकरी के दौरान पेशेवर विकास का कोई मौका नहीं मिलता।

एक रिपोर्ट के मुताबिक मध्य प्रदेश के छात्र पढ़ने और गणितीय कौशल में भारत के अन्य राज्यों से काफी पीछे हैं। यहां प्राथमिक कक्षाओं से उच्च कक्षाओं में जाने का दर राष्ट्रीय औसत से भी कम है।

वर्ष 2014 की शिक्षा रिपोर्ट (एएसईआर) के मुताबिक ग्रामीण इलाकों के बच्चों में से केवल 34 फीसदी बच्चे ही दूसरी कक्षा की किताबें अच्छी तरह से पढ़ पाते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक पांचवी कक्षा के केवल 31 फीसदी छात्र हैं जो गणित में घटाव कर सकते हैं।

भारतीय जनता पार्टी और काँग्रेस दोनों में से किसी भी दल ने अपने मैनिफेस्टो में कॉमन स्कूल प्रणाली का ज़िक्र तक नहीं किया है। समझ नहीं आता कि राजनेता समाज को जोड़ने या फिर तोड़ने का काम कर रहे हैं। या फिर तमाम रजनेता खुद की ज़िम्मेदारियों से भाग रहे हैं?

मौजूदा राजनीति में चुनाव के वक्त सिर्फ गौशाला और मंदिर बनवाने की बातें होती हैं। अगर आज मध्य प्रदेश में शिक्षा एक सामाजिक और राजनैतिक मुद्दा बन जाएगी तब ये राजनेता भी चुनावी तवे पर सियासी रोटियां सेंकने लगेंगे लेकिन आने वाली पीढ़ी को वह रोटी नसीब नहीं होगी।

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