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“विशेष अंगों को छूने के अलावा गंदी निगाहों से देखने पर भी असहज होती हैं लड़कियां”

मीटू आंदोलन

मीटू आंदोलन के बैनर तले प्रोटेस्ट करती महिलाएं

‘मीटू’ के बारे में पिछले कई दिनों से अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं सुनने को मिल रही हैं। एक तरफ जहां इसकी सराहना की जा रही है वही दूसरी ओर ‘मीटू’ को लेकर गलत प्रचार भी किया जा रहा है। जिन महिलाओं ने इस मुहिम के तहत सामने आकर अपने अनुभव रखने की हिम्मत की है, उसका मज़ाक बनाकर चटकारे लेना उनके हौसले को कम करने जैसे बात है। इस तरह के अनुभवों के प्रति संवेदना रखने वाले लोग कम ही हैं।

अब तो कुछ लोगों से यह भी सुनने को मिलती है कि यदि किसी महिला को कोई खूबसूरत कह दे, तब #MeToo के साथ उनका नाम सार्वजनिक कर दिया जाएगा। कई बार चुस्की लेने के लिए लोग मुझसे पूछते हैं, “आप बड़ी फैमिनिस्ट टाईप दिखती हैं और आपसे डर लगता है कि कहीं आप ‘मीटू’ या ‘सेक्सुअल हैरासमेंट’ का केस तो नहीं कर देंगी।” इस तरह के सवाल सिर्फ तंग मानसिकता वाले लोग ही पूछ सकते हैं।

‘मीटू’ या किसी भी सार्वजनिक प्लेटफॉर्म पर खुलकर अपनी बात कहना इतना आसान नहीं होता। इस निश्चय तक पहुंचने की यात्रा बहुत भयानक होती है। आदमी लगातार मानसिक तौर पर खुद से जूझता है। बार-बार परिस्थियां उसे कमज़ोर करती हैं। मुझे ऐसा नहीं लगता है कि वर्तमान समय में किसी भी महिला को शोषण का डर ना हो। ‘मीटू’ मुहिम के ज़रिए महिलाओं का खुलकर सामने आना एक शुभ संकेत तो है ही लेकिन इस संदर्भ में शोषण के शिकार यदि पुरुष, बच्चे या एल.जी.बी.टी समुदाय के लोग भी हुए हैं तो उन्हें भी ऐसे प्लेटफॉर्म की ज़रुरत है।

‘मीटू’ जैसे प्लेटफॉर्म को फैमिनिज़्म बताकर छोड़ देना या उसे स्टीरियोटाइप कहना सच्चाई से मुह मोड़ लेने जैसी बात है। फिल्मों के माध्यम से या फैशन ट्रेंड के तौर पर स्थापित किये गए फैमिनिज़्म में सिर्फ शराब और सिगरेट पिने वाली सम्पन्न नायिकाओं को इसी तरह की आज़ादी के लिए लड़ते हुए दिखाया जाता है। अपनी यौन इच्छाओं और माहवारी जैसे विषयों पर बात करना ही फैमिनिज़्म नहीं है। किसी भी इंसान को किसी घटना या व्यवहार के लिए वर्ग, जाति और लैंगिक पूर्वाग्रह से मुक्त होकर देखा जाना चाहिए। ये तमाम तत्व भी एक बड़ी लड़ाई का हिस्सा हो सकते हैं।

मेरी कविताओं को पढ़कर लोगों को लगता है कि मैं फैमिनिस्ट हूं और इसलिए मुझसे बचकर रहना चाहिए। कई बार फुसफुसाहट में मेरे सहकर्मी यहां तक कह देते हैं कि ये थोड़ी अजीब सी है, इसके सामने संभलकर रहना। लोगों को ये समझ नहीं आती कि वे जिस तरीके से औरतों की खूबसूरती को ‘सेक्सी’ कहकर संबोधित करते हैं या कॉम्प्लीमेंट के नाम पर उसे जस्टिफाइ कर देते हैं, वह कहां तक सही है। उनकी गालियां जो सिर्फ मॉं-बहनों के यौनांगों पर आधारित है, क्या वह संकीर्ण सोच नहीं है?

मैं कभी-कभी सोचती हूं कि अगर पुरुषों पर यह रोक लगा दी जाए कि फलां-फलां शब्दों और विषयों को छोड़कर आपको तारीफ, गालियां या मज़ाक करनी है, तब बेचारों की अभिव्यक्ति बहुत दरिद्र हो जाएगी।

पुरुषों के द्वारा ऐसी चीज़ों को सामुहिक तौर पर अभ्यास करते हुए इतना सरल बना दिया गया है कि अब तो लोगों के स्वभाव में ही ये सब झलकता है। आदमी का दिमाग आदतन मॉब लिचिंग, छेड़खानी और बलात्कार जैसे संगीन घटनाओं को भी को स्वाभाविक तौर पर देखने लगा है। मेरे जैसे अजीब से दिखने वाले स्त्री या पुरुष एक टाइप या टाइटल निर्धारित करने के लिए आसान शिकार बन जाते हैं। ये तमाम लड़ाईयां इंसान को इंसान की तरह से ही देखने की है। इसलिए इस तरह की आवाज़ों का सामने आना भी ज़रूरी हैं, ताकि अभी तक जो लोग बात कहने की हिम्मत नहीं कर पाए, उनके लिए अपनी बात रखने का माहौल बन सके।

‘मीटू’ जैसी मुहिम में सामने आने वाली औरतों के अनुभवों को सिर्फ घटनाओं या  कहानियों में तब्दील होने का खतरा भी है। इसलिए ज़रूरी है उनके यहां तक आने के संघर्ष से एक संवेदनशीलता का संबंध बनाना। उस घटना या शब्दों के पीछे छिपी पीड़ा को समझना। इस दौर में यदि किसी के साथ शोषण हुआ होता है, तब उसे अपनी बात तक रखने के लिए खौफ का सामना करना पड़ता है। ‘मीटू’ में कई ऐसे भी मामले सामने आए हैं जहां बचपन में किसी लड़की के साथ शोषण हुआ था और उसने अब जाकर चुप्पी तोड़ी। समाज ने इसपर भी सवाल खड़े किए।

मैं उस समाज से पूछना चाहती हूं कि अगर कम उम्र में  किसी लड़की के साथ कुछ गलत हुआ है, तो हो सकता है उस वक्त उसमें उतनी हिम्मत नहीं होगी अपनी बात को सामने रखने की। इसपर सवाल क्यों खड़े किए जा रहे हैं?

कई बार मैंने अपनी सहेलियों को शोषण के खिलाफ विरोध करने के लिए कहा जिससे सामने वाले को बेइज्ज़ती महसूस हो। ये ज़रूरी भी है लेकिन इस तरह के एक्शन-रिएक्शन से काम नहीं चलता। प्रोग्रेसिव खेमे में काम करते हुए बहुत सी घटनाएं याद आती हैं जिसमे कोई कॉमरेड अंकल का इस तरह का केस सामने आता था और सज़ा के तौर पर उन्हें कुछ महीनों के लिए उस पद से बर्खास्त कर दिया जाता था। थोड़े दिनों बाद किसी फिल्मी हीरो की तरह अंकल कमबैक करते थे। उसी तेज और भरोसे के साथ फिर से अवतार की तरह अवतरित होते थे और फिर महफिल में चौड़ाई से अपने भाषणों में इन्हीं विषयों पर खूब जुगाली करते थे।

‘मीटू’ ने कई लोगों का चेहरा सामने लाया और कुछ लोग अपने कुकर्मों पर पर्दा डालने के लिए अतिरिक्त रूप से साफ़-सुथरी छवि निर्माण की कोशिश कर रहे हैं। जो लोग ये सोचते है कि ‘मीटू’ जैसे प्लेटफॉर्म पर शेयर हो रही घटनाएं महज़ एक पब्लिसिटी स्टंट है, तो मैं उनको इस मंच पर आमंत्रित करती हूं कि वो आकर अपने किस्से भी बताएं। उन्हें भी बाताना चाहिए कि उन्होंने किस-किस लड़की का शोषण किया या उनसे कोई लड़की किस तरह से अनकंफर्टेबल हुई।

विशेष अंगों को छूना यानी गुड टच या बैड टच के अलावा किसी के देखने भर से भी कोई असहज हो सकता  है। गलत तरीके से हाथ मिलाने से भी कोई असहज हो सकता है। इस तरह के नज़र और स्पर्श का फर्क कभी बातचीत के दायरे में शामिल किया जाना चाहिए। कम-से-कम खुद को फैमिनिस्ट कहने वाले या प्रगतिशील लोगों को यह कदम ज़रूर उठाना चाहिए, क्योंकि हर लड़की को इस तरह की घटनाओं से बचने या टालने के संस्कार तो दिए जाते हैं लेकिन संस्कार देने वालों ने कभी ऐसी ज़िम्मेदारी लड़को के मामले में नहीं ली। मैं इस तरह की पहलकदमियों का इंतज़ार कर रही हूं।

उम्मीद करती हूं कि ये पहलकदमियां किसी सस्ते फैशन ट्रेंड की तरह तब्दील नहीं होंगी, बल्कि इन प्रयासों के चलते एक ऐसा माहौल बनेगा जिसमें समस्या को गंभीरता से लिया जाएगा और न्याय की बात होगी। इसलिए ‘मीटू’ जैसे मंच बहुत ज़रूरी हैं जिसमें किसी एक की आपबीती नहीं, बल्कि पूरा समुदाय अपनी दबी हुई आवाज़ दर्ज करा सके। मैं खुले तौर पर ‘मीटू’ जैसे मंच को सपोर्ट करती हूं।

Photo Source: Twitter

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