“जब दर्द नहीं था सीने में तब खाक मज़ा था जीने में”, किशोर कुमार के इस मशहूर गीत के बोल से अलग हमारी ज़िन्दगी में हम अपने दर्द और गम को सहने की शक्ति खोते जा रहे हैं। आलम यह है कि खुदकुशी ही लोगों के लिए एकमात्र रास्ता बचा है। मौजूदा दौर में लोग तमाम तरह की परेशानियों के बीच अपने जीवन में संतुलन कायम नहीं कर पा रहे हैं।
वैसे तो आनंद फिल्म में राजेश खन्ना कहते हैं कि ज़िन्दगी और मौत की डोर तो ऊपर वाले के हाथ में है जहांपनाह, वो जब चाहे उसे काट सकता है। ऐसे में लोग अपनी मौत का फैसला खुद क्यों करने लगे हैं?
अगर कुछ हालिया घटनाओं पर प्रकाश डाली जाए तब हम पाएंगे कि लोग ज़िन्दगी की डोर को खुद ही काटने पर लगे हैं। 8 सितम्बर 2018 को दिल्ली मेट्रो के सामने कूदकर एक महिला ने खुद की सांसे खत्म कर ली। वही 22 अक्टूबर 2018 को दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने अपने बॉयफ्रेंड के परिवार वालों से हुए झगडे के कारण आत्महत्या कर ली।
हालिया मामला राजस्थान के बिकानेर का है जहां 20 नवंबर की शाम चार युवकों ने ट्रेन के आगे छलांग लगा दी थी, जिनमें तीन युवकों की मौके पर ही मौत हो गई। एक घायल युवक जो जीवित था, अस्पताल में इलाज के दौरान उसकी भी मौत हो गई।
मीडिया में इस घटना को लेकर कहा जाने लगा कि बेरोज़गारी के कारण इन्होंने आत्महत्या की है लेकिन अभी हाल ही में बीबीसी की रिपोर्ट में यह दावा किया गया है कि उनके परिवार की हालत अच्छी थी। ऐसे में आत्महत्या का कारण बेरोज़गारी कैसे हो सकती है?
WHO के आंकड़ों की माने तो दुनिया में हर साल 8 लाख लोग खुदकुशी करते हैं। दुनियाभर में होने वाली आत्महत्याओं में 21 प्रतिशत भारत में होती है।
बदलते वक्त के साथ लोगों के जीने के तरीके भी बदल गए हैं। हमारे पास वक्त नहीं होता कि हम किसी के साथ भी बैठकर पांच मिनट बात कर सकें। भागदौड़ वाली मानसिकता के बीच हम केवल खुद में ही उलझकर रह गए हैं। दूसरी तरफ ऐसे लोगों की संख्यां भी बहुत कम है जिनके साथ हम अपने दुखों को बांट सकें। इस वजह से अंदर ही अंदर हम गमों को सहते चले जा रहे हैं।
आलम यह है कि भीड़ में भी लोग खुद को अकेला महसूस करने लगे हैं। मुस्कुराते चेहरों के अंदर की खुशी कहीं गुम होती जा रही है। ऐसे में ज़रूरत है कि हम अपनी जीवन शैली को बदलें। आपके आत्मविश्वास के आगे जीवन का कोई भी गम बड़ा नहीं हो सकता है।