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“क्या भारत में मैटरनिटी लीव कानून में बदलाव महिलाओं के लिए उल्टा पड़ रहा है?”

भारत में कामकाजी महिलाओं के इतिहास और उनके संघर्ष पर नज़र डाले तो सबसे पहले 1881 के दशक में बंबई कॉटन मिल में मैटरनिटी लीव की मांग उठती हुई दिखती है, जब सात लोगों की कमिटी जिसमें दो भारतीय भी शामिल थे मिल में काम करने वाली महिलाओं की स्थितियों का जायजा लेने आए। कमिटी ने मिल में काम करने वाली महिलाओं के काम के घंटे, वेतन, स्वास्थ्य और मैटरनिटी लीव की सिफारिश की थी। धीरे-धीरे यह मांग कामकाजी महिलाओं के बीच ज़ोर पकड़ने लगी।

राधाकुमार अपनी किताब History of Doing में इसका ज़िक्र करती हैं कि भारतीय मिलों और फैक्ट्रियों में महिलाओं के मैटरनिटी लीव की मांग हमेशा से होती रही है। आज़ाद भारत में कामकाजी महिलाओं के लिए मातृत्व अवकाश (Maternity Leave) का विचार डॉक्टर अांबेडकर ने सबसे पहले समझा और कामकाजी महिलाओं को संविधान के अनुच्छेद 42 के अनुकूल ‘मातृत्व लाभ अधिनियम-1961’ का अधिकार दिया, जो “काम के लिए सही एवं मानवीय दशा तथा मातृत्व राहत” देने की वकालत करता है।

समय के साथ मातृत्व लाभ को उदार करने की कोशिशें भी होती रहीं। मसलन, पहले इसमें 90 दिनों का अवकाश था जो अब 135 दिनों का हो गया है। अक्सर महिलाओं के लिए तीन महीने की छुट्टी के बाद वापस काम पर लौटना मुश्किल होता था और वे अपनी छुट्टियां बढ़ा लेती थीं। सरकार ने महिलाओं की तकलीफ समझते हुए इसको 26 हफ्तों का कर दिया और मैटरनीटी लीव कानून 2017 में पेश किया गया। संशोधन के बाद श्रम मंत्रालय ने मैटरनिटी लीव में बढ़ाए गए 14 हफ्तों में से 7 हफ्ते की सैलरी कंपनियों ने देने का प्रस्ताव दिया है। परंतु, वही महिलाएं इसका लाभ ले सकती है जिनकी सैलरी 15000 रुपये से ज़्यादा होगी और वे कम-से-कम 12 महीनों से ‘ईपीएफओ’ की सदस्य होंगी। हालांकि यह पॉलिसी दिल्ली और महाराष्ट्र में लागू की गई है।

मौजूदा मैटरनीटी लीव कानून 2017 में बदलाव का देश की महिलाओं को बेसब्री से इंतजार था पर जिस रूप में मौजूदा कानून आया है, वह देश की आधी आबादी के लिए उल्टा प्रतीत हो रहा है।

महिला कर्मचारियों को मिलने वाली सहूलियतों पर काम करने वाली संस्था टीमलीज़ ने एक साल में 300 कंपनियों का सर्वे किया। टीमलीज़ की रिपोर्ट तैयार करने वाली ऋतुपर्णा चक्रवर्ती बताती है कि “हर जगह दबी ज़ुबान से महिलाएं बता रही हैं कि उनसे उनकी शादी और बच्चे के प्लान के बारे में पूछा जा रहा है। कई कंपनियां बिना कहे इस तरह के अलिखित नियम बना रही हैं जो महिलाओं के मातृत्व इच्छा के खिलाफ है।” यह स्थिति और भी अधिक चिंताजनक तब हो जाती है जब निजी और सार्वजनिक संस्थाओं में नियुक्त्ति के इंटरव्यू में शादी और बच्चे के प्लान के बारे में पूछा जाने लगा है।” मैटरनिटी बेनिफिट क़ानून में संशोधन कर सरकार ने बहुत सकारात्मक कदम उठाया है, क़ानून के पीछे की सोच अच्छी है, आने वाले दिनों में हो सकता है इसके अच्छे परिणाम देखने को मिलें। लेकिन काम पर रखने वाली संस्थान अपने वित्तीय घाटे के बारे में भी सोच रही है इसके लिए ज़रूरी है कि सरकार संस्थानों को छूट या टैक्स बेनिफिट भी दे।

परंतु, यह महिलाओं के मातृत्व लाभ अधिकार का सिर्फ़ एक फील गुड वाला पक्ष है इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि देश में उन्हीं कामकाजी महिलाओं को मातृत्व लाभ कानून का लाभ मिल पाता है जो या निजी संस्था में ओहदेदार पद या सार्वजनिक संस्था में स्थायी पदों पर कार्यरत है। अनुबंध के शर्तों पर काम करने वाली कामकाजी महिलाओं को इसका कोई लाभ नहीं मिल पाता है वे इस दौरान या नौकरी छोड़ देती हैं या नो वर्क नो पे की नीति उनपर लागू होती है।

देश की प्रतिष्ठित यूर्निवर्सिटी जेएनयू के वीमन स्टडीज़ डिपार्टमेंट में अनुबंध के शर्तों पर काम करने वाली कंचन मान बताती हैं, “उनके पहले मैटरनिटी लीव के दौरान उनको नो वर्क नो पर वाली बात बताई गई, जब शिक्षकों ने इसपर आपत्ति उठाई और इस विषय पर संघर्ष किया तब उनको मैटरनीटी लीव कानून का लाभ मिल सका। वही दूसरे मैटरनिटी लीव के दौरान संघर्ष नहीं किया तो उनको इसका कोई लाभ नहीं मिला। जबकि उनके सहकर्मी महिला कर्मचारी जो स्थायी पद पर काम कर रही थी उनको इस कानून का पूरा लाभ मिला।”

मैटरनीटी लीव कानून 2017 के कुछ वर्ष पूर्व यूजीसी ने शादीशुदा महिलाएं और 40 प्रतिशत दिव्यांग महिलाओं के लिए जो MPhil और पीएचडी कर रही है उन्हें मैटरनिटी और चाइल्ड केअर लीव के लिए 240 दिन की छुट्टी की घोषणा की। इसके साथ-साथ जो महिलाएं शादी के बाद दूसरी जगह चली जाएंगी उन्हें अपनी मर्ज़ी की यूनिवर्सिटी में रिसर्च डेटा देने की आज़ादी होगी बशर्ते वे उस रिसर्च का क्रेडिट पैरेंट इंस्टिट्यूशन को दें। इस बदलाव का मुख्य मकसद इन लोगों को शिक्षा के क्षेत्र में बराबर का मौका देना है।

जेएनयू में ही सोशल साइंस स्कूल में पीएचडी करने वाली ज्योती बधूड़ी अपन अनुभव बताती हैं, “काफी कोशिश के बाद भी वह मैटरनिटी और चाइल्ड केअर लीव के लिए 240 दिन की छुट्टी का लाभ नहीं ले सकी क्योंकि सम्बंधित अधिकारी इस प्रावधान की व्याख्या में ही उलझे रहे, मेंटल ट्रॉमा से बचने के लिए मैंने लीव लेने का इरादा ही छोड़ दिया।” वही सोशल साइंस में ही पीएचडी कर रही प्रीति कुशवाहा इसका लाभ लेने में सफल रही क्योंकि वह सम्बंधित अधिकारी को मैटरनिटी और चाइल्ड केअर लीव की व्याख्या को समझाने में सफल रही।

कमोबेश हर निजी और सार्वजनिक संस्थाओं में मैटरनिटी लीव देने वाली कमिटियों के सदस्य का व्यवहार बहुत ही अमर्यादित होता है। कभी-कभी इतना अधिक मैटरनिटी लीव अधिकार का लाभ लेना एक मेंटल ट्रॉमा से गुज़रने जैसा होता है। कुछ दिनों पहले ही छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने सरोगेसी प्रक्रिया से माध्यम से माँ बनने वाली शासकीय महिला कर्मचारी को सरकार के नियमानुसार मातृत्व अवकाश के लिए योग्य पात्र माना। जबकि शासन ने उनकी याचिका खारिज करते हुए कहा था कि सरोगेसी से माँ बनने वालों के लिए मातृत्व अवकाश के लिए कोई नियम नहीं है।

जाहिर है मैटरनिटी और चाइल्ड केअर लीव अधिकार काफी उलझा हुआ है और यह केवल अपने ही देश में नहीं है, अगर भारत में इस दौरान 12 हफ्ते वेतन का प्रावधान है तो ब्रिटेन में 39 हफ़्तों में 90% वेतन का हक है, चीन में 98 दिन औसत वेतन मिलने की गारंटी है तो अमेरिका में 12 हफ्ते वेतन का प्रावधान है वह भी नियोक्ता इसके लिए बाध्य नहीं है।

मैटरनिटी लीव अधिकार के बहस में सबसे प्रमुख बात यह भी है भारत सरकार इस अधिकार के तहत चाइल्ड केयर के लिए महिलाओं को ही लीव देने के विचार में उलझी हुई है। दुनिया में कई देशों में मैटरनिटी लीव की जगह पेरेंटल लीव का प्रावधान है। यानि मातृत्व अवकाश सिर्फ़ मांओं की ज़िम्मेदारी नहीं, माता-पिता में से कोई भी बच्चा होने पर उनको पालने के लिए अवकाश ले सकता है। भारत में ऐसा कुछ अभी तक बहस का हिस्सा भी नहीं है।

मौजूदा समय में जब पति-पत्नी दोनों ही वर्किग है या दोनों ही अपने भविष्य के लिए आकांक्षी है तो भारत सरकार को भी इस दिशा में पहल भी करनी चाहिए. साथ ही साथ मैटरनिटी लीव अधिकार अधिक लचीला और उदार बनाए रखने की ज़रूरत भी है ताकि जो देश कामकाजी महिलाओं की संख्या के हिसाब से 131 देशों में से 120 वें पायदान पर है, वहां जेडर समानता का सूचकांक भी बेहतर हो सके और महिलाओं के पक्ष में अधिकारों में किए जा रहे सुधार केवल वोट बैंक की राजनीति भर बनकर नहीं रह जाए।

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