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“इस अंधे दौड़ वाले शहरी जीवन में सुकून का परिंदा नज़र नहीं आता”

आज घर एकाकी है, खो गई बूढ़ी काकी है

जिसकी कहानियों ने बालपन सहला दिया है

वक्त की गेंद ने यह विकेट भी हिला दिया है।

 

कौन कितना भाग रहा है, इसका तो हिसाब नहीं

पीछे कुछ गलियां छूट गई हैं

यही बता रहा है यह चौराहा अभी।

 

मैं तो अधूरी तैयारियों से परीक्षा देने आया था

उत्तर लिखते हुए पता चला

यह प्रश्न तो कहीं बाहर से आया था।

 

बाहर निकला तो लोग नहीं

अनुत्तरित सवाल दौड़ रहे थे

कच्ची तैयारियाें के ये किस्से

चारों ओर मेरे देश घूम रहे थे।

 

कोई उदारीकरण से मालामाल हुआ

कहीं गौरिया का घोंसला बेहाल हुआ

इसी तंगहाली में एक घर मेरा आबाद हुआ।

 

लेकिन यहां इमारतें इंसान से बड़ी हैं

जाने ज़रूरत क्या पाने की ज़िद में लड़ी हैं

क्योंकि मेरी इच्छाएं तो आज भी

एक छोटे से कमरे में पड़ी हैं।

 

जहां छोटे से जंगलों जितने सपने हैं

पुराने किस्सों में हंसाते मेरे अपने हैं

जहां खुश है खुदी तो दिक्कत क्या है

शरीर को सताती यह कसरत क्या है?

 

जो सुकून नाम का परिंदा

मेरा आराम चुराकर ले गया

उड़ा इतना चमकते आसमान पर

कि अंधा होकर भटक गया।

 

अब दौड़ है अंधी, रुकने के निशान नहीं देखती

ज़मीन हो गई है गंदी

थकान के भी निशान नहीं पोंछती।

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