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“जाने कहां गुम हो गए वो मिट्टी के घरौंदे”

मिट्टी के घरौंदे

मिट्टी के घरौंदे

दीपावली के आते ही शहर से लेकर गांव, मुहल्ले और कस्बे सभी गुलज़ार हो जाते हैं। अब दीपावली बदल सी गई है। दीपों की जगह लोगों ने पहले मोमबत्तियां जलानी शुरू की और अब तो चाइनीज़ झालरों का धड़ल्ले से प्रयोग हो रहा है। दीवावली के रोज़ पहले माँ कहा करती थी कि जब दीये जलते थे तब आकाश की गंदगियां साफ हो जाती थी। ये बताते-बताते वो अपने ज़माने में चली गईं और बोली कि मेरे ज़माने में दीये काफी जला करते थे।

अब तो वक्त ऐसा हो चुका है कि दीपक जलाने के लिए कोई ज़्यादा मात्रा में तेल भी खर्च नहीं करना चाहता। गरीब तो आधा पाव में ही निपट जाते हैं लेकिन उस समय गरीबों में भी दीये जलाने को लेकर उत्साह था। सरसों पेराई एक महीने पहले से ही शुरू हो जाती थी और कुम्हार भी दीये बनाना शुरू कर देता था।

आज के ज़माने में वक्त काफी बदल चुका है। अब ना कुम्हार बचे हैं और ना ही दीये और मोमबत्ती जलाने को लेकर लोगों में कोई जोश बचा है। अब तो हर तरफ प्लास्टिक के झालर ही दिखाई पड़ते हैं। पुरानी सभ्यता और परंपरा तो बिल्कुल हो रही है। वो मिट्टी के घरौंदे जो हम बनाते थे, पता नहीं कहां गुम हो गए।

बगल वाली दीदी और मैं तो दो हफ्ते पहले से ही बतियाने लगते थे कि इस बार हमारा घरौंदा 5 मंज़िला होगा। लोगों में उस समय फ्लैट की समझ नहीं थी। उस घरौंदे में तो दालान, दुआर, आंगन और सब कुछ होता था। आज कल के बच्चे इनसे कहां वाकिफ होंगे। वे तो ड्रॉइंग रूम, और 10/8 के गेस्ट कमरे में सिमट गए हैं।

साइकिल उठाना, आधा टांग पर कैची चलाना, गांव के बाहर जाना, खेतों में से मिट्टी खनना, बोरे में उसे भरकर घर लाना, मिट्टी और नोना इट को पानी में डुबाना, ये जाने कहां अब छूट गए।

वो मिट्टी और पत्थर पानी में डालने पर जो पानी से बुलबुले निकलते थे, वो बुलबुले जस के तस मेरे दिल में आज भी अंकित हैं। उस समय माटी गुथने से घिन्न नहीं आती थी। पियरी माटी से घर को पोतना, करिया माटी से बॉर्डर बनाना, ललकी माटी से घरौंदे केआंगन को पोतना। ये सब याद आते हैं।

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