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कैंसर: पैसे और जागरूकता के अभाव में किसी को अपनों की मौत का इंतज़ार न करना पड़े

मार्च का महीना साल 2010 अचानक दादी की तबीयत खराब हुई। 65 साल की उम्र में उनके प्राइवेट पार्ट से खून आने लगा था। डॉक्टरों ने कई तरह की जांच की और आखिरी रिपोर्ट में जो आया उसे भूल पाना आज भी मुमकिन नहीं। दादी जिन्हें मैं प्यार से ‘माई’ बुलाती थी वह कैंसर के चौथे और आखिरी स्टेज में थी। डॉक्टरों ने कहा कीमोथेरिपी से आप बस इन्हें 1 या 2 महीने की और जिंदगी दे पाएंगे। साथ ही इस उम्र में शायद इनका शरीर कीमो जैसी थेरेपी को झेल न पाए। पापा ने माई को घर लाने का फैसला किया ताकि वह अपनों के बीच रहें।

कैंसर की रिपोर्ट आने से पहले वह हम सबके लिए एक बेहद स्वस्थ महिला थीं। वह हर सुबह वॉक पर जाती थीं। घर का खाना खाती थीं। बाहर की चीजों को कभी हाथ भी नहीं लगाया करती थीं। यहां तक कि माई को कभी कोई बीमारी छूकर भी नहीं गुज़री थी। ऐसे में माई का सीधा कैंसर के आखिरी स्टेज में पहुंच जाना हम सबके कुछ ऐसा था जिस पर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था।

कैंसर ने एक स्वस्थ्य महिला को धीरे-धीरे अपनी जद में ले लिया और अपनी जिंदगी के आखिरी पलों में वह पूरी तरह हड्डियों का ढांचा बन गईं। 6 महीने के अंदर माई की बोलने, सुनने, समझने की शक्ति चली गई। वह किसी को पहचान भी नहीं पाती थी। लगातार बिस्तर पर पड़े रहने के कारण शरीर घावों से भरता चला जा रहा था। उनके दर्द को देखकर लगता था इस कैंसर से बेहतर तो मौत है, कम से कम उन्हें इस दर्द से छुटकारा तो मिलेगा।

दवाएं सिर्फ उन्हें एक झूठी उम्मीद दे रही थीं। खाने के नाम पर फलों का रस और संतरें की कुछ फांकें ही वह ले पा रही थी। हर वक्त उनके पास कोई न कोई बैठा रहता था। शरीर में जब कोई हरकत न होती तो उन्हें हिलाकर तसल्ली करता कि वह अभी हमारे बीच हैं। मैं इस मामले में बहुत कमजोर थी इसलिए उनके आखिरी वक्त में उनके पास बैठने की हिम्मत नहीं होती। उनके कमरे तक जाती और फिर वापस आ जाती। उनके पास बैठे परिवार के लोग बारी–बारी से पूछा करते आप हमें पहचान रही हैं लेकिन कैंसर के कीड़ों ने माई के दिमाग से उनके परिवार की हर याद मिटा दी थी। मुझे याद है हमारे घर एक भिखारन रोजाना आया करती थीं जिन्हें माई हमेशा खाना खिलाती थीं। एक बार जनवरी की सर्दी में माई ने उन्हें दरवाजे पर ही अपना स्वेटर उतारकर दे दिया था। जब उन्हें पता चला कि माई को कैंसर हैं तो वह उनसे मिलने आई और उनकी हालत देखकर वह कई महीनों तक घर दोबारा नहीं आई।

मुझे कैंसर के नाम से नफरत हो गई थी। हर वक्त लगता था काश! माई का इलाज समय रहते होता, काश! हमें पहले पता चल जाता कि वह कैंसर की चपेट में हैं। वह ऊपर से स्वस्थ दिखती रहीं और हमें पता भी नहीं चल पाया कि उन्हें इस जानलेवा बीमारी ने जकड़ रखा है। पूरे परिवार को हर वक्त मलाल रहने लगा कि अगर हमने  वक्त रहते सावधानी दिखाई होती तो शायद आज माई फिर पूरी तरह स्वस्थ होतीं।

आखिरकार 23 सितंबर, 2010 रात 11 बजे उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली। तब तक कैंसर ने उन्हें पूरी तरह तोड़ दिया था। कैंसर से चली उनकी लंबी लड़ाई ने न सिर्फ उन्हें बल्कि पूरे परिवार को तब तक झकझोर दिया था क्योंकि जिनसे आप सबसे ज्यादा मोहब्बत करते हैं उन्हें इतनी पीड़ा में देख पाना आपके लिए मुश्किल होता है। माई के जाने के बाद एक सवाल जो पीछे रह गया, वह था क्यों कैंसर की जानकारी और पैसों के अभाव में हमारे अपनों की मौत हो जाती है।

यह कहानी सिर्फ मेरी माई की नहीं है। भारत में हर साल 0.7 मिलियन कैंसर के नए केस सामने आते हैं। लाखों लोगों को अपनी बीमारी का पता तब चलता है जब वे अपनी बीमारी के आखिरी स्टेज पर पहुंच चुके होते हैं। कैंसर किसी भी व्यक्ति को किसी भी उम्र में हो सकता है। इसके पीछे कई वजहें होती हैं जैसे संक्रमित खाना और पानी, तंबाकू और शराब का अत्यधिक सेवन, जेनेटिकल  वजहें।

कैंसर डेटा पर काम करने वाली संस्था GLOBOCAN के अनुसार भारत में आनेवाले समय में कैंसर के मरीजों में 70% तक बढ़ोतरी देखने को मिलेगी। साल 2035 तक भारत में करीब 1.7 मिलियन लोग इस बीमारी से लड़ रहे होंगे। बता दें कि हमारे देश में पुरुषों में सबसे ज्यादा पेट, फेफड़े और खाने की नली से जुड़े कैंसर आम हैं। वहीं महिलाएं स्तन, खाने की नली और सर्विक्स कैंसर से ज्यादा पीड़ित होती हैं। इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट की माने तो कैंसर के 68% मरीजों की मौत की यह सबसे बड़ी वजह है समय पर इलाज न मिल पाना, इलाज का महंगा होना अन्य प्रमुख कारण हैं जिसकी वजह से लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ती है।

कैंसर की बीमारी से लड़ाई के बीच जो सबसे बड़ी चुनौतियां हमारे सामने हैं वे हैं जानकारी और जागरूकता का अभाव जिसके कारण मेरे जैसे लाखों लोग हर साल अपनों को खो देते हैं। दूसरी सबसे बड़ी वजह इलाज का महंगा होना। अगर किसी मध्यम वर्ग परिवार के किसी सदस्य को कैंसर हो गया तो कई बार वे जानकारी और जागरूकता होने के बाद भी उन्हें खो देते हैं क्योंकि इस महंगे इलाज के खर्च को वे वहन नहीं कर सकते। देश के ज़्यादातर सरकारी अस्पतालों में कैंसर के इलाज की कोई सुविधा नहीं है। इलाज के लिए मरीज़ो को किसी कैंसर सेंटर में ही जाना पड़ता है।

भारत में हर परिवार युवराज सिंह या सोनाली बेंद्रे का नहीं होता जो अमेरिका जाकर कैंसर का इलाज करा पाएं। हर परिवार के पास इतने संसाधन नहीं होते और जब आधे से अधिक लोग अपने देश में ही इलाज करा पाने में सक्षम नहीं होते तो विदेश जाने की बात तो उनके साथ एक क्रूर मज़ाक करने जैसा होगा।

कैंसर से पीड़ित भारत के कई लोग अच्छे और बेहतर इलाज के अभाव में ही मारे जाते हैं। कुछ ऐसी ही हालत मेरे परिवार की भी थी, कीमोथेरेपी न होने के बावजूद कैंसर के महंगे इलाज का खर्च मुश्किल से उठा पा रही थी। इस स्थिति में उन मरीज़ों की हालत समझी जा सकती है जो कैंसर की जांच करवाने की भी हालत में नहीं होते।

कैंसर के बढ़ते मरीज़ों के साथ इस देश में इसे लेकर सरकार द्वारा क्या कदम उठाए जा रहे हैं उसे देखने की जरूरत है। जानकारी के साथ-साथ कैंसर के इलाज को ऐसा बनाने की जरूरत है जिस तक हर मरीज़ की पहुंच हो। वरना देश में मरीज़ों की संख्या साल दर साल बढ़ती जाएगी और कैंसर अस्पतालों के बाहर मरीज़ यूं ही मरते रहेंगे।

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