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“राष्ट्रगान पर खड़े ना होने पर एक बुज़ुर्ग को पीटना मैं देशभक्ति नहीं मानता”

दिसंबर का महीना तारीख 19 आज से करीब दो साल पहले। मैं हिन्दू छात्रावास से बालसन की तरफ जा रहा था। मैंने देखा कम्पनी गार्डन (आज़ाद पार्क) में शहीद स्थल पर कोई कार्यक्रम चल रहा है, मन में आया कि देखूं क्या है। तब इस पार्क में घूमने-फिरने का कोई शुल्क नहीं लगता था।

‘देश रंगीला रंगीला’ बज रहा था, जिसकी ध्वनि दूर तक आ रही थी। पास गया तो देखा स्टेज पर एक छोटी सी बच्ची इस गाने पर नृत्य कर रही है। उसके अलावा और भी म्यूज़िक कोर के लोग इंस्ट्रूमेंट्स के साथ अपना स्थान संभाले हुए थे। यह अच्छा सा पंडाल था जिसमें आगे कुछ विशिष्ट गणमान्य व्यक्तियों की कुर्सीयां लगी थीं, जिनपर वे मंचासीन थे।

पीछे की कतारें लगभग एक-चौथाई छोड़कर खाली थीं। आयोजक जी बुला-बुलाकर सबको बैठा रहे थे। तभी एक पर्चा मेरे हाथ में आया। इसमें कार्यक्रम के बारे में और इसके उद्देश्य पर संक्षेप में प्रकाश डाला गया था। मगर जो चीज़ मैं ढूंढ रहा था वह पर्चे से गायब थी।

“कुछ आरज़ू नहीं है, है आरज़ू यही कि रख दे कोई ज़रा-सी खाक-ए-वतन कफन में…” यह लाइन ज़रूर थी लेकिन बाकी हाईलाइट चीज़ों में यह संघर्ष करती नज़र आ रही थी। अब एक देशभक्ति से सराबोर माहौल की तरफ कार्यक्रम रूख कर चुका था। गायक जी के साथ सभी सुर से सुर मिलाकर गा रहे थे, “दिल दिया है जां भी देंगे ऐ वतन तेरे लि”। क्या जूनून था।

देशभक्ति से लबालब भरे एक नेता जी ने अशफाक के जीवन और व्यक्तित्व पर गरमजोशी के साथ एक स्पीच दी। तालियों की गड़गड़ाहट से कम्पनी बाग गूंज उठा। अब बारी थी अध्यक्ष महोदय के संबोधन की। किंतु इससे पहले अध्यक्ष जी के योगदान, उनके कृतित्वों व संघर्षों की विस्तार से चर्चा ज़रूरी थी इसलिए कुर्सी से उठकर मंच पर चढ़कर माइक संभालने तक की जो समयावधि थी, वह करीब पंद्रह मिनट तक खिंचती गयी।

भले चंगे प्रफुल्लित अध्यक्ष जी को दो लोग कंधों से उठाये मंथर गति से मंच की तरफ ऐसे ले जा रहे थे, जैसे अभी हॉस्पिटल से डिस्चार्ज हुए हों। जैसे-जैसे उनके पांव सीढ़ियां ढूंढ रहे थे, उसी लय में संचालक महोदय उनकी तारीफ में शब्द ढूंढते जा रहे थे। हम लोग भी वहीं प्रसन्न भाव से उनके इस अद्भुत संघर्ष को आत्मसात कर रहे थे।

“शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यहीं बाकी निशां होगा” तालियों की गड़गड़ाहट एक बार फिर गूंज उठी और फिर उन्होंने बोलना शुरू किया, “शहीदों की शहादत भूलाये नहीं भूलती और भूलनी भी नहीं चाहिए। हिन्दू- मुस्लिम एकता व भाईचारे की मिसाल थे अशफाक… हम नहीं भूले रामप्रसाद बिस्मिल को, नहीं भूले रोशन सिंह को इसलिए तो मनाते हैं हर साल उनकी शहादत को। हमने इसके लिए ये किया, वो किया, इनसे लड़े, उनसे भिड़े और फलां-फलां जगह प्रतिमाओं का लोकार्पण किया, आदि आदि”।

अध्यक्ष जी की बातों ने लोगों को झकझोर दिया था। लोग क्रांतिकारी हुए जा रहे थे, कार्यक्रम अब आखिरी पड़ाव पर था। राष्ट्रगान के लिए संचालक जी ने अनुरोध किया। सिंगर जी के साथ नाल, गिटार एवं पैड प्लेयर मंच पर विशेष मुद्रा में रेडी थे। राष्ट्रगान शुरू हुआ सब लोग एक साथ एक आवाज़ में राष्ट्रगान गाने लगे। “जन गण मन अधिनायक, जय हे जय हे जय जय जय जय हे।”

अचानक से सिंगर मंच से नीचे कूदकर तेज़ी से दौड़े। हम सभी अवाक थे हुआ क्या? सबकी नज़र ऑर्केस्ट्रा वाले सिंगर पर थी। पास में ही जो सीढ़ीनुमा बैठने की नयी जगह बनी है उसपर बैठे एक बुज़ुर्ग को कॉलर पकड़े घसीटते हुए चले आ रहे थे। लोग दौड़े, भीड़ इकट्ठा होती गयी। क्या हुआ, क्या हुआ? सिंगर का गुस्सा आसमान पर था। उस बुज़ुर्ग की नाक पर घूंसा जड़ते हुए ताबड़तोड़ सिंगर ने प्रश्न करना शुरू कर दिया , “बोल क्यों खड़ा नहीं हुआ.. बहरा है? तुझे मालूम नहीं राष्ट्रगान का सम्मान किया जाता है, साले देशद्रोही, मुस्लिम है ना? बोलता नहीं है।”

गणमान्य व्यक्ति भी आ गये। अध्यक्ष जी ने उसका टेटवा पकड़ा और दांत पीसते हुए चिल्लाकर पूछा, “जानता है किसके बारे में कार्यक्रम चल रहा है?” भीड़ का एक पक्ष उग्र हो चुका था बाकी कुछ छुड़ाने की कोशिश कर रहे थे। वह बेचारा कुछ समझ पाने कि स्थिति में ना था। खींचातानी में उसकी कमीज़ फट चुकी थी।

“जाने दीजिये सर पता नहीं था उसे…छोड़िये!” संचालक जी बचाव ही कर रहे थे लेकिन ऊपरी तौर पर, नेता जी ने भद्दी सी गाली दी और चलते बने। दो लोगों ने सिंगर को पकड़ कर अलग-थलग किया और बुज़ुर्ग को वहीं बिठा दिया। उसकी कनपटी से थोड़ा खून बह रहा था। शायद माइक से ही सिंगर ने उसपर प्रहार किया था। काफी देर तक तो वह व्यक्ति सामान्य ही नहीं हो पाया था। अब वहां उसके आस-पास आठ-दस लोग ही बचे। जिनमें ज़्यादातर छात्र थे, उन्होंने ही उसे उग्र भीड़ से अलग-थलग किया था।

मैं वहां केवल मूक दर्शक था। एक महिला जिन्हें यह सब देखकर बड़ी ग्लानि हुई वह एकदम से विद्रोही स्वर में मुखर होकर बोल उठीं, “ये भाईचारे कि बात करने वाले हैं, मुझे खिन्न आ रही है ऐसे कार्यक्रम में आकर, इस घटना की भी प्रेस रिपोर्टिंग होनी चाहिए।”

मिठाइयों के पैकेट बांटे जा चुके थे, ज़्यादातर लोग वहां से जा चुके थे। टेंट वाले टेंट व कुर्सियां ले जा रहे थे, वह बुज़ुर्ग कोई भी बात ठीक से नहीं समझ पा रहा था, एक तरह से विक्षिप्त ही था। बाद में उसने बताया कि यहीं पास में रोड पर ही रहता है। उसका अपना कोई घर नहीं है।

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