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“तलाक की घटनाओं में क्यों हो रही है इतनी बढ़ोतरी?”

शादी के बाद तलाक

शादी के बाद तलाकशादी के बाद तलाक

एक पुरुष की ज़िन्दगी तब तक अधूरी मानी जाती है जब तक वह किसी महिला के साथ शादी के बंधन में बंध नहीं जाता है। हिन्दू रीति-रिवाज़ के हिसाब से जब पति-पत्नी सात फेरे लेकर रिश्ते की बुनियाद रखते हैं, तब वे सात जन्मों तक एक दूसरे का साथ निभाने की कसमें भी खाते हैं। शादी दो आत्माओं का मिलन है जो सात सुरों के संगीत की तरह सुरीली होती है।

कई दफा ऐसा भी देखा गया है जब एक-दूसरे का साथ ना छोड़ने की कसमें खाने वाले भी अलग हुए हैं। हिन्दुस्तान के संस्कार की जड़ें इतनी मज़बूत थी कि यहां रिश्ते बनाने के बाद उन रिश्तों की डोर को तोड़ने की घटना बहुत कम मिलती थी लेकिन वक्त बहुत तेज़ी से बदल गया। अब रिश्तों को तोड़ने के लिए जोड़ियां अदालतों में तलाक लेने जाते हैं।

हर कोई इस बात को बड़े हल्के तरीके से कटाक्ष के रूप में ले रहा है लेकिन बहस कोई नहीं करना चाहता कि आखिर क्यों भारत के अदालतों में तलाक की अर्ज़ियां तेज़ी से बढ़ती जा रही हैं?

बाहर के देशों से भारत की तुलना करने पर तो पाएंगे कि हम बहुत बेहतर हालत में हैं, क्योंकि आंकड़ों के मुताबिक अमेरिका में 50 प्रतिशत शादियां टूट जाते हैं, वहीं यूनाइटेड किंगडम की बात करें तो वहां 1000 शादियों में 500 शादियां असफल होती हैं। इस मामले में हिन्दुस्तान काफी बेहतर है, क्योंकि यहां 1000 शादियों में केवल 13 शादियां ही टूट रही हैं। अगर हम पिछले दशकों की बात करें तब पहले 1000 शादियों में सिर्फ 7 शादियां ही टूटती थीं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि तलाक की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है।

भारत की राजधानी दिल्ली में रोज़ाना औसत 100 तलाक की अर्ज़ी फाइल किए जा रहे हैं। इतना ही नहीं कोलकाता और मुंबई जैसे शहरों में यह आंकड़ा तेज़ी से बढ़ा है। कोलकाता में 2003 से 2011 के आकड़ों में 350 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जबकि मुंबई में 2010 के मुकाबले 2013 में तलाक के मामलों में दोगुनी बढ़त देखी गई है। बाहर के देशों के मुकाबले हमारा समाज बहुत बेहतर है लेकिन तेज़ी से बढ़ते आंकड़े बता रहे हैं कि हम भी उनका पीछा करने को बेकरार हैं।

तलाक की बढ़ती घटनाओं से मुझे तो यही लग रहा है कि रिश्तों की डोर कमज़ोर होती जा रही है। हमारे बीच से धैर्य जैसे खत्म ही होता जा रहा है। एक दूसरे को समझने की कला भी खत्म होती जा रही है। हम रिश्तों की महत्तव को समझने में असफल होते जा रहे हैं और भागदौड़ में किसी के लिए वक्त निकालना मुश्किल सा होता जा रहा है।

दूसरों को देखकर अपने विचार बनाने और बदलने वाले समाज में हमारी उम्मीदें और आकांक्षाएं हमारे रिश्तों पर बोझ बनती जा रही है और हम उस बोझ को हल्का करने की कोशिश में विफल हो रहे हैं। रिश्तों को बचाए रखने के लिए आपस में एक सामंजस्य कायम करने की ज़रूरत होती है।

छोटी-मोटी लड़ाइयों को सुलझाने वाला एकल परिवार जैसे खत्म सा हो गया है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि बदलते वक्त के साथ रिश्तों को जोड़ने से ज़्यादा तोड़ने का काम किया जा रहा है। यहां सात जन्मों के कस्में-वादे याद दिलाने वाला कोई नहीं है।

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