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क्या युद्ध के दम पर शांति हासिल की जा सकती है?

युद्ध इस दुनिया की कभी ना खत्म होने वाली एक क्रिया है। युद्ध के भरोसे ही दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था चल रही है। भारत विश्व के सबसे बड़े बाज़ारों में से एक है, भारत विश्व के सबसे बड़े युद्ध क्षेत्रों में से भी एक है।

इस देश में युद्ध कभी खत्म नहीं हो सकते क्योंकि भारत का खुला बाज़ार एक अड्डा बन गया है युद्धों पर पैसा लगाने का। कूटनीतिक रूप से भी भारत ने अमेरिका के इस कथन को अपना लिया है जो बीसवीं सदी में अमेरिका के सबसे मज़बूत सिद्धांतों में से एक रहा है। सिद्धांत है कि युद्ध शांति का पर्याय है। शांति सिर्फ युद्ध के दम पर हासिल की जा सकती है।

जैसा कि बीसवीं सदी के आरंभ से ही देखा गया कि कैसे विश्व युद्धों द्वारा दुनिया पर शांति थोपी गई। कैसे परमाणु बमों द्वारा जापान में शांति स्थापित की गई। कैसे अपनी प्रतिष्ठा बचाने के लिए वियतनाम में अमेरिका ने शांति की कोशिशें जारी रखी। फिर कैसे तेल के लालच में अमेरिका द्वारा इराक, ईरान तथा अन्य खाड़ी देशों में शांति स्थापित करने की कोशिशें जारी हैं। कैसे अफगानिस्तान में तालिबान की सफाई के ख्याल से बंदूक के दम पर शांति बहाल की जा रही है।

शांति स्थापना के दो ही तरीके हैं। एक तो आप शांत हो जाएं और उनके कुकृत्यों में अपनी मौन स्वीकृति दें। दूसरा तरीका यह है कि आपको जबरन गोलियों से शांत करा दिया जाए, जहां शोर की कोई गुंजाइश ही नहीं होगी। दोनों ही परिस्थितियों में शांति के नाम पर सिर्फ मुर्दा शांति ही स्थापित की जा सकती है।

वही मुर्दा शांति जो दशकों से भारत में भी बंदूक के दम पर स्थापित करने की कोशिश हो रही है। कश्मीर, नक्सल, पूर्वोत्तर, दक्षिण तथा पाकिस्तान एवं चीन से सटे इलाकों में।

वैश्विक पटल पर देखें तो हम पाएंगे कि आतंकवाद या युद्ध के रूप में भारत के पास वैसी कोई विकराल परिस्थिति भी नहीं है, जो इसे विश्व का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश बना दे। यह सच है कि भारत विश्व का सबसे बड़ा हथियार आयातक देश है और हथियार बेचने वाले ज़्यादातर यूरोपीय, अमेरिकी, रूसी देश जानते हैं कि भारत के पास हथियार खरीदने के लिए पर्याप्त पैसे भी हैं और खपत करने के लिए पर्याप्त कारण भी।

इस परिस्थिति को व्यापक ढंग से समझने के लिए हमें कुछ आंकड़ों को खंगालना होगा।

अमेरिका, रूस, फ्रांस, जर्मनी, चीन तथा ब्रिटेन क्रमशः ये विश्व के सबसे बड़े हथियार निर्यातक देश हैं। जिनका मुख्य पेशा है विश्व के दूसरे विकासशील देशों में युद्ध एवं विवाद के मुद्दों को ज़िन्दा रखना, ताकि इनके द्वारा निर्मित महंगे हथियार लगातार बिकते रहें। विश्व बैंक तथा बड़े उद्यमी बढ़ चढ़कर हथियारों की खरीद में हिस्सा लेते हैं।

अमेरिका को विश्वभर में शांति स्थापित करने का सबसे बड़ा देश माना जाता है मगर पर्दे के पीछे की हकीकत यह है कि विश्व के सबसे बड़े हथियार बेचने वाले देशों में अमेरिका 34 फीसदी हिस्सेदारी रखता है। विकसित और विकासशील देशों में हथियार खरीद का अनुपात 1:5 का है। अर्थात विकसित देश जहां हथियारों पर ₹1 खर्च करते हैं वहीं विकासशील देश हथियारों पर ₹5 खर्च करते हैं। जबकि विकासशील देशों के मुख्य मुद्दों में अभी भी रोटी, कपड़ा, मकान और रोज़गार होने चाहिए थे।

कुल मिलाकर बात बस यही है कि औद्योगिक समूह, मीडिया, सरकार तथा अंतरराष्ट्रीय संगठन कोई भी नहीं चाहता कि युद्ध समाप्त हो। अगर यह समाप्त हो गया तो उनकी दुकानें बंद हो जाएंगी। ऐसा होता है तो यह एक सामूहिक हानि होगी। यह भी एक विडंबना ही है कि विश्व में हथियारों की खरीद फरोख्त एवं आंकड़ों के लिए जो संस्था काम करती है उसका नाम स्टॉकहोम अंतरराष्ट्रीय शांति अनुसंधान संस्थान है। अर्थात एक शांति संगठन ही युद्ध के आंकड़ें रखता है।

एक बात और जो हमें गांठ बांध लेनी होगी, “शांति कभी भी युद्ध की नींव पर नहीं स्थापित की जा सकती”।

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