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“पटेल और नेहरू के संबंधों को लेकर भ्रम क्यों फैलाया जाता है?”

सरदार वल्लभभाई पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरू

सरदार वल्लभभाई पटेल और पंडित जवाहर लाल नेहरू

मौजूदा दौर में सत्ता के बिछाए घुड़दौड़ में हम अजीब तरह से उलझते जा रहे है और हमें इसका एहसास भी नहीं हो रहा है कि इस नूरा-कुश्ती में हम सिर्फ बेवकूफ बन रहे हैं। कुछ दिन पहले यह घुड़दौड़ नेहरू और नेताजी के बीच थी जब आज़ाद हिंद सरकार की 75वी वर्षगांठ के अवसर पर ध्वजारोहण करते समय नेहरू को कटघरे में रखा जा रहा था।

आज यह घुड़दौड़ नेहरू और सरदार पटेल के बीच में है, जब यह सिद्ध किया जा रहा है कि सरदार देश के प्रधानमंत्री होते तो कुछ और तस्वीर होती। फिर तो यह मान कर चला जाए कि अगली रेस नेहरू और बाबा साहब के बीच होगी और कहा जाएगा कि नेहरू बाबा साहब को स्वतंत्र रूप से काम नहीं करने दे रहे थे जिसके कारण बाबा साहब ने इस्तीफा तक दे दिया। जबकि नेताजी, पटेल और आंबेडकर अपनी-अपनी विचारधाराओं के संघर्ष से आज़ादी के पहले महात्मा गांधी और आज़ादी के बाद जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वैचारिक विभिन्नता का प्रतिनिधित्व करते हैं, इन सबों के बीच मतभेद ज़रूर गहरे थे पर वह मनभेद नहीं थे।

आज यदि भारत एक धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र है तो उसमें देश में उपनिवेश विरोधी संघर्ष का बहुत बड़ा योगदान और इतिहास है। विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं के लोगों ने अपने संघर्ष और रणनीतियों से भारत को औपनिवेशिक दास्तान से मुक्त कराने की कोशिश की। अगर मौजूदा सरकार यह कहती है कि सत्ता में रहते हुए नेहरू-गांधी परिवार ने बोस, पटेल और अंबेडकर को नज़रअंदाज़ किया, तो इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता है, यह उनको सच ज़रूर लग सकता है जिन्होंने इतिहास के किताबों से कभी भी धूल नहीं झाड़ी हो।

बाबा साहब आज़ादी के पहले गांधी से घोर असहमति रखते थे, पर आज़ाद भारत के प्रथम मंत्रीपरिषद के सदस्य रहे और संविधान सभा के मसौदा समिति के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारतीय समाज व्यवस्था के विरोधाभास को ध्यान में रखते हुए संवैधानिक स्थितियां तय की। दलितों को शून्य समझे जाने वाले समय में बाबा साहब देश के हर मामलों में एक अनिवार्य निर्णयकर्ता तक बने। “हिंदू कोड बिल” पर घोर असहमति के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। ध्यान देने वाली बात यह है कि जो विचारधारा उस समय महिलाओं को संवैधानिक अधिकार पर असहमति जता रहा था, वही देश आज महिलाओं को धार्मिक अधिकार देने में असहमति जता रहा है।

खासकर आज़ादी के बाद पटेल और नेहरू के संबंधो को लेकर इसी प्रकार का भ्रम फैलाया जा रहा है, जबकि यह संदर्भ काल ही बहुत छोटा है। नेहरू और पटेल के संबंधों को आज़ादी के दौरान संघर्षों के समय से देखना ज़रूरी है। पत्रकार दुर्गादास की किताब ‘कर्जन टू नेहरू एंड आफ्टर’ को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि जब तक पटेल जीवित रहे, अधिकांश निर्णय उनकी सहमति से लिए गए। नेहरू को पटेल छोटा भाई एवं अपना नेता मानते थे।

मौजूदा प्रधानमंत्री के द्वारा यह कहा जाना कि बंबई में पटेल की अंतिम यात्रा में नेहरू ने भाग नहीं लिया था और वे पटेल की उपेक्षा करते थे, पूरी तरह से गलत है। मोरारजी देसाई की आत्मकथा और उस समय के अखबारों की तस्वीरों ने प्रधानमंत्री की बातों को गलत साबित कर दिया है।

मैंने कुछ दिन पहले राजकुमार राव की फिल्म देखी जिसमें वह नेताजी की भूमिका में थे। फिल्म देखकर सर खुजाने के अलावा मेरे पास और कुछ नहीं था। नेहरू और नेताजी की विचारधारा एक-दूसरे के करीब थी, क्योंकि दोनों ही धर्मनिरपेक्ष होने के साथ-साथ हिंदू राष्ट्रवाद से सहमत नहीं थे।

इतिहास की किताबों में दर्ज है कि जब बोस ने कलकत्ता नगर निगम चुनाव में मुसलमामों के आरक्षण की व्यवस्था की तो हिंदू राष्ट्रवादियों ने विरोध किया था। चूंकि बोस हिंसा में विश्वास रखते थे, इसलिए गांधी से उनकी असहमतियां थी। इसलिए त्रिपुरा अधिवेशन में अध्यक्ष चुने जाने के बाद भी उन्होंने इस्तीफा दे दिया और ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’ नाम से वामपंथी दल का गठन किया, जो लंबे समय तक बंगाल के वामपंथ सरकार का हिस्सा भी रहा।

नेहरू और बोस में मतभेद दूसरे विश्व युद्ध में कॉंग्रेस की भूमिका को लेकर अधिक थी। कॉंग्रेस ने ब्रिटिश विरोधी रूख अपनाते हुए ‘भारत छोड़ो आनंदोलन’ की शुरूआत की। बोस जापान और जर्ममी के सहयोग से भारत को आज़ाद करवाना चाह रहे थे। कॉंग्रेस ने जन-आंदोलन का रास्ता चुना और बोस ने ‘आज़ाद हिंद फौज’ का गठन किया।

जो लोग आज तमाम महापुरुषों के बीच रेस लगवाकर मौजूदा समय के सवालों से बचना चाह रहे हैं, वह अपने मातृ-संगठन की भूमिका के बारे में बात करने पर अगल-बगल झांकने लगते हैं। ये लोग भूल जाते है कि नेहरू, आंबेडकर, नेताजी, सरदार पटेल, महात्मा गांधी और भगत सिंह सभी प्रासंगिक हैं, लेकिन आज के भारत और भारतीय इतिहास की समस्याओं पर विचार करने पर हम पाते हैं कि इनकी प्रासंगिकता उस दौर की राजनीति में और आज के राजनीति में एक समान नहीं हो सकती है।

हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि देश ने उस तरह की आज़ादी नहीं पाई जिसकी कल्पना की गई थी, परंतु अपूर्णता और विरोधाभासों के बाद भी हम निखरे हैं और तमाम विविधताओं के बाद भी हम एक संगठित राष्ट्र हैं। देश के कई टुकड़ों के बंट जाने की भविष्यवाणी तो कई विदेशी राजनीतिक चितंको ने की थी लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज़ादी के तमाम नायकों ने मतभेद और मनभेद के साथ देश को सजाया और संवारा है।

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