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“प्राइम टाइम से क्यों गायब है किसानों का मुद्दा?”

राजधानी दिल्ली में लाखों की तादाद में इकट्ठे हुए किसानों की आवाज़ भले ही गूंज रही हो लेकिन टीवी चैनलों पर इसका ज़िक्र ना के बराबर रहा। प्राइम टाइम पर इसपर संवाद होने की बजाय जो मुद्दा अहम रहा वो हिंदुत्व की राजनीति का था।

किसानों की मांगों को अनदेखा करते हुए देश के प्रमुख चैनल्स हिन्दू-मुस्लिम पर बहस करते हुए नज़र आ रहे हैं। देश के प्रमुख पत्रकार किसानों की आवाज़ बनने की बजाय हिंदुत्व का झंडा बुलंद करते हुए दिख रहे हैं।

किसान मुक्ति मार्च में शामिल किसान। फोटो सोर्स- पूजा प्रसाद, YKA यूज़र

ज़ी न्यूज़ का प्रमुख शो ‘ताल ठोक के’ में मुख्यमंत्री योगी जी का बयान चर्चा में रहा और इसी चैनल के एक और शो में ‘भाई वर्सिस भाई’ में भी किसानों का मुद्दा अपनी जगह नहीं बना पाया।

अब हम किसानों की मांगों की और देखते हैं, जिनमें कि प्रमुख मांग स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट को लागू करने को लेकर है और दूसरी सबसे महत्वूर्ण मांग न्यूनतम समर्थन मूल्यों को लेकर है। किसानों की मांग और महिला किसान के मुद्दों के बीच टाइम्स नाउ का कार्यक्रम नवजोत सिंह सिद्धू व पाकिस्तान पर रहा।

देश का महत्वपूर्ण स्तंभ आज हिंदुत्व की राजनीति करते हुए टेलीविज़न चैनल्स पर दिखाई देता है और प्रमुख पत्रकार हिन्दू-मुस्लिम बहस करके देश को एक खाई में खदेड़ते हुए नज़र आते हैं। देश का युवा वर्ग हो या बुजु़र्ग नागरिक इस बेबुनियादी बहस का हिस्सा बन चुके हैं, क्योंकि उन्हें ज़रूरी मुद्दों से दूर रखा जा रहा है।

जिस देश की 70 फीसदी आबादी किसानी पर निर्भर है और इसमें महिला किसान जो कि खेतों का ख्याल रखती हैं, उनपर कोई बात नहीं करता। साथ ही वे खेतिहर मज़दूर जो कि बहस का मुद्दा होने चाहिए थे वे मुद्दों से गायब रहें या अगर रहें भी तो मात्र एक खबर के तौर पर।

राजनेताओं की ज़िम्मेदारी के साथ ही मीडिया की भूमिका अहम थी क्योंकि योजनाओं के बीच बातचीत का माध्यम पत्रकार ही बन सकते थे जो दूसरी बेवकूफी भरी बहसों में पड़े रहें। देश के नागरिकों को तय करना है कि उन्हें अब किसको ज़्यादा तवज्ज़ों देनी है और किस पर बहस जायज़ है और किसपर नहीं।

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