भारत आज बड़ी तेजी से आधुनिकता की तरफ बढ़ रहा है लेकिन पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि देश में आज भी महिलाओं के प्रति लोगों की सोच तंग है। भारतीय संविधान में तो सभी को समानता का अधिकार दे दिया गया था लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या उस संविधान का पालन करते हुए स्त्रियों और पुरुषों को समान नज़रों से देखा जाता है?
इस प्रश्न पर अपने-अपने जाएज़ तर्कों के साथ लोगों के कई मत हो सकते हैं लेकिन यहां सवाल केवल समानता का नहीं है, मसला हमारे नज़रिए का भी है। जैसे एक रनिंग एथलीट की रेस वहीं से शुरू होती है जहां से रेखा खींची जाती है, ठीक उसी प्रकार से भारतीय समाज ने भी आधुनिकता को ऐसी ही सीमित रेखा के बीच बांधकर रख दिया है। सबसे मज़ेदार यह है कि इस रेखा के भीतर जो भी परिभाषित किया गया है, उसे संस्कृति और सभ्यता के नाम पर पवित्रता प्रदान कर दी। जबकि आधुनकिता का अर्थ पश्चिमी रीतियों जैसा आचरण करना नहीं है।
आधुनकिता का वास्तविक अर्थ है, “जीवन यापन करने की एक तार्किक सोच।” जो सभी व्यक्तियों का मौलिक और नैसर्गिक अधिकार है। चूंकि इस पवित्रता के सिद्धांत का पालन पुरुष नहीं कर सकते हैं इसलिए इसे महिलाओं पर ही थोप दिया गया है। पुरुष अपने पूरे परिवार के लिए धन अर्जित करता है, इस कारण उसे कई प्रकार की छूट भी दी गई है।
किसी भी सरकारी विभाग या प्राइवेट कंपनी में देखा जाता है कि दिन-रात मेहनत करने के बाद पुरुषों को शीर्ष पद मिल जाता है, जबकि महिलाओं को समझौता करने के लिए कहा जाता है। कई मौके ऐसे होते हैं कि अपनी मेहनत के बल पर कामयाबी हासिल करने वाली महिलाएं आगे तक नहीं पहुंच पाती हैं। इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह से उनका लालन-पालन।
एक कन्या को जब पाला जाता है तब उसे यही शिक्षा दी जाती है कि बेटी पुरुषों से हमेशा दूर रहना, उनसे खतरा है। इस नियम का पालन करने के लिए कई और नियम बना दिए जाते हैं, जैसे पुरुष सहयोगियों से ज़्यादा बात नहीं करना, देर तक ऑफिस में नहीं ठहरना, ऑफिस के साथ परिवार भी संभालना आदि। ऐसे में एक साधारण वर्ग से आई स्त्री अपना भविष्य बना सकती है क्या? जबकि, इन सभी नियमों से आज़ाद पुरुष जल्दी ही तरक्की पा लेता है।
चलिए अगर मान लेते हैं कि एक स्त्री अपनी मेहनत के दम पर इन सभी नियमों को चुनौती देते हुए सफल हो भी जाती है तब समाज क्या उसे एक्सेप्ट करता है? समाज यह सोचने लगता है कि आधुनिक स्त्री है और सभी नियमों को ताक पर रखकर सफलता हासिल की होगी।
एक और पहलू बेहद दिलचस्प है और वो यह कि जिस पुरुष को स्त्री के लिए बचपन से ही खतरा बताया गया है, उसी को रक्षक (पिता, भाई और पति के रूप में) भी बनाया गया है। अब एक साधारण स्त्री के लिए नियम यह होता जाता है कि बिना रक्षक के स्त्री सुरक्षित ही नहीं है। इस पितृसत्ता वाले समाज ने स्त्री को ना तो सशक्त बनाया और ना ही आत्मनिर्भर होने की सीख दी।
अगर कोई स्त्री इन नियमों को ताक पर रखकर अपनी ज़िन्दगी को अपनी मर्ज़ी से जीना चाहती हैं तब ऐसी आधुनिक स्त्री के लिए हमारे समाज में कोई जगह नहीं छोड़ी जाती है। पुरुषों को ऐसा लगता है कि एक स्त्री बड़े शहरों में अकेले भला कैसे रह सकती है?
इसी आधार पर उस आधुनिक स्त्री को हमारा आधुनिक होता समाज स्वीकार नहीं करता। जब तक एक स्त्री के पास पति या पिता द्वारा की गई सहायता और नाम ना हो, तब तक उसे समाज स्वीकार नहीं करता। आखिर समाज ने ही तो स्त्रियों को पुरुषों पर निर्भर रहना सिखाया है। इसमें केवल पुरुषों की ही गलती नहीं होती बल्कि वे स्त्रियां भी ज़िम्मेदार होती हैं जो खुद को पुरुष की छत्रछाया के बिना रखना ही नहीं चाहती है। याद रखिए विपत्ति के समय केवल आप ही अपने आपको बचा सकते हैं। चाहे किसी की भी छत्रछाया में रहिए, कोई आपकी मदद नहीं करने वाला।
यह अटल सत्य है, चाहे स्त्री हो या पुरुष, जब तक आप अपने स्वयं के मौलिक अधिकारों के लिए खड़े नहीं होंगे तब तक कोई भी आपकी सहायता नहीं कर सकता। शायद हमारे समाज में अभी भी आधुनिकता को लेकर भ्रम है और जब बात आधुनिक स्त्री की आती है, समाज उसपर भरोसा ही नहीं करना चाहता। समाज को उसकी आज़ादी अच्छी नहीं लगती। जब समाज आधुनिक हो सकता है फिर स्त्री क्यों नही?