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“मेरी 1.2 फुट की योनि”

योनि

योनि, प्रतिकात्मक तस्वीर

मैंने सही में कभी भी अपनी योनि के विषय में ज़्यादा सोच को बल नहीं दिया था, जबतक कि एक छोटे से स्थानीय समाचार पत्र ने मुझसे योनि के ‘सुंदरीकरण’ के बारे में लिखने को नहीं कहा। वे योनियों को कलात्मक रूप से मनभावन करने के लिए जाने जाते हैं। मेरी योनि हमेशा मेरे जिस्म का एक अहम हिस्सा रही है मगर मैंने हमेशा ही ज़्यादातर समय उसे ढाँपकर रखना पसंद किया है और कभी उसपर अधिक नहीं सोचा है। उसके सही इस्तेमाल के वक्त भी ज़्यादा सोचा नहीं है।

समाचार पत्र में उस स्तंभ के प्रकाशित होते ही पुणे की एक चित्रशाला ‘आर्ट टुडे’ ने मुझे एक कलाकृति और लेखनी के संग महिला दिवस प्रदर्शनी में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया।

इसके कुछ दिनों पहले तक मेरी लेखनी और चित्रकारिता एक दूसरे से काफी भिन्न हुआ करते थे। शीर्षक देने के वक्त ही दोनों एक साथ जुड़ते थे। जनवरी 2017 में एक कार्यक्रम के दौरान पुणे के ‘कला-मंडई प्रदर्शनी’ में मैंने अपनी दोनों कृतियों को पहली दफा एकसार किया। यह वो जगह होती है जहां कलाकार हमारे उत्पाद बेचने के लिए सब्ज़ी विक्रेताओं के संग बैठते हैं। मेरे उत्पाद में प्लास्टिक मेज़पोशों की एक श्रृंखला शामिल थीं, जिनमें मेरे पिछले काम का एक चित्र और उसके अनुरूप मेरी एक कविता सम्मिलित थी।

योनि की खोज की प्रक्रिया मेरे दिमाग में ताज़ा थी, लिहाज़ा महिला दिवस के प्रसंगों के लिए वह एक स्वाभाविक पसंद भी थी। मैंने अपने बगीचे में फिज़ूल पड़ी एक प्लास्टिक की पाइप का टुकड़ा उठाया और काम पर लग गई।

योनि और वासना पर मेरे अपने कुछ विचार होने के साथ-साथ इस संदर्भ में परख भी थी। पहला, व्यावहारिक कारणों के लिए एक औरत सही मायनों में अपनी योनि की खूबसूरती को निहारने में ज़्यादा समय व्यतीत नहीं कर सकती। हमारे शरीर की संरचना ऐसा करने के लिए नहीं की गई है। इसलिए, अगर किसी महिला ने अपनी योनि को सुन्दर बनाने के लिए सर्जरी कराई है, तब उसकी खूबसूरती का दीदार सिवाए उसके वासना सहभागी के अलावा और कौन हो सकता है?

मुझे यह यकीन करने में मुश्किल हो रही है कि एक ‘कसी हुई योनि’ या एक ‘लंबा लिंग’ क्या सही में वासना के आनंद को बढ़ा देते हैं? या शायद वो ऐसा करते भी हों।

इस दुनिया में ऐसे भी मर्द हैं जो नवजात बच्चियों की योनियों की तस्वीरों को देखकर उत्तेजित हो उठते हैं और ऐसी औरतें भी हैं जिन्हें शल्य चिकित्सा कराने से कोई आपत्ति नहीं होती। लगता है मर्द अपने संभोगी-मित्र को ऐसी चिकित्सा विधियों से गुज़रते देखना चाहते हैं, जिसमें बेहोशी और चीर-फाड़ शामिल होता है।

योनियों के विषय में सोचते हुए मैं एक धुंधले अफसोस से सचेत हो गई कि मैं भी अपने उमंग भरे दिनों में अपनी योनि के प्रति विशेष जागरूक नहीं थी। मुझे एहसास हुआ कि यह बात मुझे हर उस युवा स्त्री को बतानी चाहिए जिसे मैं जानती थी।

ए! क्या तुम जानती हो, हमारे शरीर में एक ऐसा हिस्सा है जिसे हम देख नहीं पातीं मगर वो सच में बहुत अहम है, ठीक? उसकी देखभाल किया करो, उससे प्यार करो और उसकी इज्ज़त करो। किसी के साथ भी ऐसे रिश्ते को उपजने मत देना जो उसे एक अपशब्द की तरह इस्तेमाल करता हो। अगर तुम कभी खुशमिजाज़ी से इसे दूसरों के संग बांटना चाहो, तब उनसे होशियार रहना जो तुम्हारा शोषण करते हों, जो बिना तुम्हारी खुशी और जज़्बाती ज़रूरतों के इसको महज़ अपने उन्माद के लिए भोगते हों।”

इतनी परख और धारणा के बावजूद जब योनि के कलात्मक चित्रण की बात आई, तब मैं दुविधा में पड़ गई। क्या बिना लोगों की घृणित और अश्लील नज़रों के स्त्री के गुप्तांग को प्रस्तुत करना मुमकिन नहीं था? बिना शर्मसार हुए? पारम्परिक भारतीय कला हमेशा योनि को जड़े पत्थरों या रेखा गणित द्वारा उतारती है लेकिन मैं इससे नहीं जुड़ पाई। मेरा रूझान इस जादुई धार्मिकता के आमंत्रण या उपजाऊपन की विनती की ओर नहीं था। मैं कुछ ऐसा निर्मित्त करना चाहती थी, जो एक अनुत्तेजित तरीके से औरत की तरंगों का बखान कर सके। मैंने इस बारे में अपनी दोस्त राम्या से बात की और उसने मुझे अमेरिकन कलाकार ‘जिऑर्जिया- ओ-कीफ’ की चित्रकला की ओर जाने का निर्देश दिया।

ओ-कीफ़ की ज़्यादातर कृतियां काल्पनिक होती हैं और उसके प्रसंगों में से एक है फूलों के नज़दीकी नज़ारों की ऐसी कलाकृति जो बरबस आपको अपनी ओर खींच लाती हैं। जब समीक्षकों ने उनको महिलाओं के जननांगों का प्रतीक वर्णित किया, तब ओ-कीफ इस नियत से लगातार इंकार करती रहीं। मेरे मकसद के लिए ‘फूल’ बिल्कुल सही थे। पौधों के प्रजननीय अंग साधारणतयः रंगीन, जीवंत, खुशबूदार और आकर्षक होते हैं।

इस महंतशाही की ताकत को नज़रअंदाज़ करते हुए मैंने उस पाइप के चारों ओर औरत के चेहरे रंगने शुरू कर दिए। हरेक चेहरे पर एक फूल भी देना शुरू किया जहां पर उसके गुप्तांग होने चाहिए थे।

शुरुआत करते हुए मैं लज्जाशील महसूस कर रही थी क्योंकि मैंने ऐसा कुछ पहले कभी नहीं किया था। मेरे ज़्यादातर कामों के चित्रण में मुझे किसी खास हुनर की ज़रुरत नहीं पड़ी थी और पूरी ईमानदारी से ऐसा कुछ मेरे पास था भी नहीं। इससे पहले जब मैंने बायोलजी के क्लास के दौरान कुछ चित्रित करने की कोशिश की, तब टीचर ने मेरे बनाए हुए मेंढक के चित्र को उठाकर सबको दिखा दिया। उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि सभी ठहाके लगाकर हंसने लग जाएं।

परंपरागत भारतीय लोक शैली का अनुकरण करते हुए समकालीन शहरी भारत की श्रृंखला से मैंने पेंटिंग की शुरूआत की थी। वे रंगीन और झंकार भरे थे और उनमें किसी स्वरूप, शारीरिक रचना और शिल्पकला की आवश्यकता नहीं थी। उनका केंद्र हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी की विषमताओं को प्रदर्शित करना था, जिनकी ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता।

तभी मुझे एहसास हुआ कि योनि को अर्पित मेरे श्रद्धा सुमन कुछ वैसा ही कर रहे हैं। एक ऐसे हिस्से को प्रदर्शित करने की कोशिश की जा रही है, जो ज़रूरी होते हुए भी भय और गलतफहमी की वजह से छिपा हुआ था। सम्मुख होने पर उसमें ज़ुर्म और दहशत के एहसास को बढ़ाने की ताकत थी। मुझे अफसोस हुआ अपनी योनि को अनदेखा करने और उसे वो तरजीह ना देने का, जिसकी वो हकदार थी।

मैं चित्रकारी करती गई और उनमें से एक चित्रित स्त्री के अंदर पता नहीं कैसे एक भ्रूण पनपने लगा। दूसरी के सफेद बाल थे। वहां फूलों की कई किस्में थीं और अगल-अलग प्रकार की योनियों के साथ महिलाएं भी थीं।

जब मैंने मासिक धर्म के लहू को दर्शाने के लिए गहरे कत्थई रंग से पृष्ठभूमि को रंगा, तब सहसा मेरे मन में ख्याल आया, “हे भगवान ये पाइप तो 20 इंच लम्बा है। मुझे इसे ‘मेरा तुमसे ज़्यादा बड़ा है’ कहकर पुकारना चाहिए।”

तब मेरी योनि ने खुद से मुझे एक बेहतर राह दिखाई और मेरे ज़हन में ख्याल आया कि यह कोई प्रतियोगिता नहीं है। मैं सोचने लगी कि हर कोई कटाक्ष की तारीफ नहीं करता और हंसी-खुशी के लिए किए गए कटाक्ष ही इकलौता रास्ता नहीं है। अगर तुम्हें एक समूची योनि को वर्णित करना है, तब इसे बाहर की ओर निकालना होगा। मैं खुद चाहती हूं कि यह कुछ बेहद खूबसूरत और बेशकीमती चीज़ की तरह प्रचारित हो जाए, जो निजी होते हुए भी ना तो शर्मनाक है और ना ही खामोश। यह बस आपकी स्वेच्छा और सहमती से साझा होती है।

साज़ अग्रवाल की कलम से

अनुवाद- रोहित शुक्ला


नोट: साज़ अग्रवाल एक लेखिका हैं जिनकी कलम के दाएरे में आत्मकथाएं, अनुवाद, आलोचनात्मक समीक्षाएं और हास्य स्तंभ आते हैं।

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