पीटर मुल्लन की फिल्म ‘फ्रिज’ पूर्वाग्रहों के विरुद्ध एक ज़रूरी दस्तावेज़ है। एक लड़ाई है, विनम्र जीत है। नब्बे के दशक में निर्मित यह फिल्म विश्व सिनेमा में खास पहचान रखती है। आर्ट सिनेमा की खूबियां समेटे यह डॉक्यूमेंट्री हमें झकझोरने का काम करती है, जागरूक बनाती है, संवेदना देती है, पूर्वाग्रहों पर चोट करती है, चकित करती है।
स्लम के लोगों को अकसर हानि पहुंचाने वाला मान लिया जाता है। उनके करीब जाने से लोग मना करते हैं। इन्हें कबाड़ी की तरह ट्रीटमेंट मिलती है। कीमत कुछ भी नहीं। मुल्लन ने अपनी इस फिल्म में दिखाया है कि समाज किस तरह इन्हें कबाड़ी से अधिक नहीं मानता। इनके हालात संवेदना की मांग करते हैं।
यह शॉर्ट फिल्म बच्चों को केंद्र में रखती है। फ्रिज में बंदकर दिए बच्चे के ज़रिए कहानी कही गई है। सबकुछ ब्लैक एंड वाइट में है। बच्चों को लेकर संवेदनाएं चिंता का विषय बन चुकी है। बच्चों के साथ अमानवीय कृत्यों की खबरें हमेशा बनी रहती हैं। आए दिन ऐसी घटनाएं घटती रहती हैं। हम विचलित होकर बैठ जाते हैं। दुनिया चलती रहती है। बदलाव आकर भी नहीं आते। किसी भी समाज के लिए यह बहुत अच्छी बात नहीं।
फिल्म से होकर हमें बेहतर महसूस होता है। हर समाज में बच्चों को पुष्प समान रखा जाता है। स्लम भी इससे अलग नहीं। पीटर मुल्लन के किरदार स्लम के हैं। मुख्य किरदारों की संवेदनाएं चौंकाती हैं, विचलित करती हैं, नज़रिया बदल देती हैं, स्लम की ज़िन्दगी तबाह करने वाली शक्तियों का पर्दाफाश करती हैं।
गरीबी नशाखोरी व बेबसी की हकीकत का चित्रण सच्चा है। बड़ी-बड़ी बाधाओं के बीच मानवीय संवेदनाओं का तत्व खोज निकालना फिल्म को खास बनाता है। कबाड़ी फ्रिज में लॉक बच्चे की एक घटना किस तरह समाज की संवेदनाएं तय कर सकती हैं, इसे देखना चाहिए। सिर्फ एक घटना हालात को पहचानने के लिए काफी होती है। ऐसे हालात आदमी की असली परख करते हैं। मुल्लन ने ऐसे हालात को पकड़ा और फिल्म बना दी।
स्कॉटिश स्लम के बेघर पति पत्नी का मर्म हमें बहुत कुछ सीखा जाता है। फ्रिज में बंदकर दिए गए मासूम के लिए इनका स्नेह माता-पिता से बढ़कर है। मुसीबत से निकालने की तड़प है। संवेदनाओं में गिरावट की गहरी खीझ है। फ्रिज में लॉक कर दिए गए बच्चे के हित में उनकी पहल बड़ा संदेश देती है। संभावनाओं की अलख जगाती है।
बदमाश लड़कों के डर से बच्चा कबाड़ी में पड़े फ्रिज में खुद को छुपाने के लिए आया था लेकिन वो उसमें लॉक कर दिया जाता है। आवारा लड़के कूड़े में पड़े शख्स का मुंह भी जलाने की कोशिश करते हैं। इन्हें रोकते हैं दो लोग। शक्तियों के इन्हीं टुकड़ों से समाज चल रहा, धागे जुड़ रहें। समस्या का हल नहीं निकाला जाए तो समस्या बढ़ जाती है। मुल्लन ने फिल्म में समस्या को पकड़कर आईना रच दिया है।
मामूली सी नज़र आने वाली घटना दरअसल क्यों बड़ी शक्ल ले लेती है, फिल्म बताती है। लापरवाही, असहयोग, निर्दयता, वैमनस्य, समाज की संवेदनाओं को धूमिल कर देते हैं। ऐसे माहौल में दुर्घटनाएं त्रासदी बन जाती हैं। एक बच्चे के साथ हुई घटना के ज़रिए टूट रहे समाज को उम्मीद मिलती है। मुल्लन की कथा में नाउम्मीदी झेल रहे बेघर दम्पति को उम्मीद का ज़रिया बनाया गया। यह पीड़ित हैं। हाशिये हैं लेकिन अपनी उपयोगिता ज़िदा रखे हुए हैं।
अकसर ऐसे किरदारों को नकारात्मक फ्रेम में ढाल दिया जाता है। पूर्वाग्रहों से मार दिया जाता है। मुल्लन की ‘फ्रिज’ मुक्त प्रवाह की पैरोकार है, यथार्थ देती ज़मीन है, संभावना का मर्मस्पर्शी संदेश है। आज भी ‘इंसानियत’ शोषित लोगों के दिल के सबसे नज़दीक है। जिन्हें इंसानियत ने लायक नहीं समझा, वही उसे सबसे ज़्यादा प्यार करते हैं। इसे विडम्बना ना कहें तो क्या ।