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“धर्म की राजनीति करने वाले नेता खुलेआम संविधान का मज़ाक उड़ा रहे हैं”

आज 26 नवम्बर 2018 को संविधान को बने हुए 69 वर्ष बीत गए हैं। हमारे संविधान को बनने में 2 वर्ष 11 माह 18 दिन का समय लगा था और संविधान बनाने पर लगभग 64 लाख रुपये का व्यय हुआ था।

संविधान की उद्देशिका या प्रस्तावना को संविधान की आत्मा माना गया है। प्रस्तावना में 26 जनवरी 1976 को 42वें संविधान संशोधन द्वारा पंथनिरपेक्ष शब्द जोड़ा गया।

इसका अर्थ है कि राज्य किसी धर्म विशेष को राजधर्म के रूप में स्वीकार नहीं करेगा। सभी को उनकी आस्था अनुसार अपने धर्म के पालन की स्वतंत्रता है लेकिन अब हमारे देश में सरकारें भी हिन्दुत्व के नाम पर बनने लगी हैं।

BJP का तो शुरू से ही वही एजेंडा रहा है लेकिन कॉंग्रेस भी अब हिंदुत्ववादी बनती जा रही है और वहीं कुछ संगठन भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की कल्पना कर रहे हैं। क्या यह संविधान पर आघात नहीं है?

संविधान के अनुच्छेद 19 के अंतर्गत विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास धर्म और उपासना की स्वतंत्रता है लेकिन आज भारतीय मीडिया वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इनडेक्स में 138वें पायदान पर है। मेनस्ट्रीम मीडिया तो मर ही चुका है सिवाय कुछ लोगों को छोड़कर। जो भी चाहे वो खुद को पत्रकार समझ रहा है। सरकार की आलोचना करने वाले को ट्विटर पर गालियां मिलती हैं और फोन पर धमकियां। उसे वामपंथी, देशद्रोही की संज्ञा मिलती है।

संविधान के अनुच्छेद 17 द्वारा अस्पृश्यता का अंत कर दिया गया। सभी लोग संविधान की दृष्टि में बिना जात-पात के समान नागरिक हैं लेकिन हमारा समाज जोकि ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त है इस सच्चाई को अभी तक स्वीकार नहीं कर पाया है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के मुताबिक पिछले 10 सालों (2007-2017) में दलित उत्पीड़न के मामलों में 66 फीसदी की वृद्धि दर्ज हुई। इस दौरान रोज़ाना देश में छह दलित महिलाओं से दुष्कर्म के मामले दर्ज किए गए, जो 2007 की तुलना में दोगुना है। आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर 15 मिनट में दलितों के साथ आपराधिक घटानाएं हुईं।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक पिछले चार साल में दलित विरोधी हिंसा के मामलों में बहुत तेज़ी से वृद्धि हुई है। 2006 में दलितों के खिलाफ अपराधों के कुल 27, 070 मामले सामने आए जो 2011 में बढ़कर 33,719 हो गए। वर्ष 2014 में अनुसूचित जाति के साथ अपराधों के 40,401 मामले, 2015 में 38670 मामले और 2016 में 40,801 मामले दर्ज किए गए।

संविधान के नीति निर्देशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद 39 में सरकार को निर्देशित किया गया है कि वह प्रयास करे कि देश के स्त्री-पुरुषों को रोज़गार के पर्याप्त साधन प्राप्त हों। क्या हमारी सरकारें ऐसा करने में सक्षम हैं, नहीं। उनको तो बस मंदिर और मूर्ति की चिंता है। अभी हाल ही में अलवर में 4 लड़कों ने सिर्फ इसलिए ट्रेन के आगे कूदकर आत्महत्या कर ली क्योंकि उन्हें नौकरी नहीं मिल रही थी। इस घटना की ज़िम्मेदारी लेने के लिए क्या सरकार तैयार है?

रेलवे में कितने पद खाली हैं लेकिन सरकार परीक्षा नहीं ले रही है। परीक्षा ले भी ले तो परीक्षा परिणाम और भर्ती में कितना समय लगता है। अभी उत्तर प्रदेश में शिक्षक भर्ती में जो घोटाला हुआ उसकी ज़िम्मेदारी सरकार की है लेकिन लाठियां जनता खा रही है।

संविधान तो 26 जनवरी 1950 को लागू हो गया था लेकिन क्या हम अभी तक अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक हैं? इसके लिए हमें काफी विचार करने की आवश्यकता है। सरकारें हमें सिर्फ हिंदू मुस्लिम की बहस में फंसाकर अपने एजेंडे पर काम कर रही हैं, जिससे हम अपने अधिकारों के प्रति जागरूक ना हो और अगर ऐसा हुआ तो फिर वे अपनी राजनीतिक रोटियां कैसे सेकेंगी।

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