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“अरे भाई! ये किस पार्टी के किसान हैं?”

kisan mukti march

उदास चेहरा, उम्र लगभग कोई 70 साल, सिर पर कपड़ों की गठरी, एक सूती साड़ी लपेटे उसके ऊपर पहनी टी-शर्ट जिसपर कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव चिन्ह हंसिया-हथौड़ा छपा है। रामलीला मैदान से प्रदर्शन के लिए आगे बढ़ती दक्षिण भारत के किसी राज्य से आई इस उम्रदराज़ महिला के चेहरे पर अनगिनत गुस्से और परेशानियों के भाव देखते ही आपको सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों के ऊपर गुस्सा आना स्वाभाविक है।

किसान मुक्ति मार्च में शामिल महिला किसान। फोटो सोर्स- पूजा प्रसाद, YKA यूज़र

इससे थोड़ा पीछे खड़े हैं एक बुजु़र्ग जिनके सिर पर बंधी पगड़ी उसके ऊपर एक लाल रंग की टोपी जिसपर कम्युनिस्ट पार्टी का चुनाव चिन्ह हंसिया-हथौड़ा छपा है। हाथ में छोटा सा हुक्का है, मुंह से निकलते नारे “मोदी सरकार होश में आओ” के साथ थोड़े बहुत धुएं के बादल भी निकलते दिख जाते हैं।

ऐसे ही अनगिनत संख्या में किसान, अनेक संगठनों के लोग किसान मुक्ति मार्च में शामिल होकर पिछले दो दिनों से राजधानी दिल्ली में जुट रहे हैं। इनकी अपनी समस्याएं हैं, अपनी मांगे हैं। किसान मुक्ति मार्च का आयोजन “ऑल इंडिया किसान संघर्ष समन्वय समिति” ने किया है, जिसमें 200 से अधिक किसान संगठन शामिल हैं।

किसान मुक्ति मार्च में शामिल किसान। फोटो सोर्स- YKA

किसानों द्वारा इस तरह की यात्रा और आन्दोलन समय-समय पर सरकारों के खिलाफ होते रहे हैं। चूंकि मेरा जन्म एक किसान परिवार में हुआ है इसलिए किसान की परेशानी से मैं भली-भांति परिचित रहा हूं।

आखिर क्या कारण है कि मौसम की आहट, हवा में नमी, उससे वर्षा का अनुमान, धूप और कोहरे के प्रभाव को आसानी से समझने वाला एक किसान अपने राजनीतिक इस्तेमाल को आज तक नहीं समझ पाया?

दरअसल, उसे कभी समझने ही नहीं दिया गया। उसे उनके मुद्दे दिए ही नहीं गये। हमेशा उन्हें अपने मुद्दे थमाए गये। अक्टूबर माह में राकेश टिकैत समर्थित रैली में नारे देखिये “ये सरकार निकम्मी है ये सरकार बदलनी है” क्या इस नारे में कहीं किसान या उसका मुद्दा है?

किसान मुक्ति मार्च में शामिल किसान। फोटो सोर्स- Getty

देश की आज़ादी से लेकर अभी तक कितने प्रयास हो चुके हैं, किसानों के कितने आंदोलन खड़े किए जा चुके हैं, उनके कल्याण के लिए कितनी यात्राएं आरम्भ होती हैं, किन्तु सबका एक ही परिणाम रहा थोड़ी देर के लिए उनके नेता गरज़ते हैं, फिर उनकी मांग की आग बुझने लगती है। अचानक आन्दोलन या तो आयोजकों की ओर से समाप्त कर दिए जाते हैं या फिर सरकार शक्ति प्रदर्शन से लोगों को तितर-बितर कर देती है।

आखिर आज तक किसान एक बात क्यों नहीं समझ सका कि उनकी मांग, उसके आन्दोलन विपक्षी दल ही क्यों उठाते हैं? यानी किसान सिर्फ एक फसल है, जो पांच साल बाद कोई एक दल काट लेता है।

असल में जिस तरह किसान अपनी खेत में इशारों से अपने बैलों को चलाता है उसी तरह किसान भी हमेशा से कुछ लोगों के बैल की तरह ही रहा है। जहां बरसों पहले तक किसान सूदखोर, साहूकारों की गुलामी में दिन व्यतीत करता रहा और उन सूदखोर, साहूकारों को उस समय के राजा, रजवाड़ों और नवाबों का संरक्षण मिलता रहा ठीक उसी तरह आज भी किसानों की उपज का लाभ उठाने वाले लोग उसी तरह बाज़ारों में बैठे हैं, राष्ट्रीय, बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं और इन सभी को सरकारों का संरक्षण प्राप्त रहता है।

किसान मुक्ति मार्च में प्रदर्शन करते किसान। फोटो सोर्स- YKA

दूसरा, आज दिल्ली में जिस तरह किसान मुक्ति मार्च के किसानों के हाथों में झंडे और उनके सिर पर टोपी लगाई गयी हैं उसे देखकर आसानी से समझ लीजिये कि ये किसके किसान हैं?

बस यही सबसे अहम बात है जो किसान को समझनी होगी कि वे किसके किसान हैं, अपनी खेत में खड़ी फसल के या राजनेताओं की सत्ता की फसल के?

केंद्र में सत्तारूढ़ दल भारतीय जनता पार्टी का अपना किसान मोर्चा है। प्रमुख विपक्षी दल कॉंग्रेस के अपने किसान कॉंग्रेस कमेटी और मोर्चे हैं। किसान मज़दूरों के सबसे बड़े कथित हितैषी वामपंथी दलों के अपने किसान संगठन, कमेटी और मोर्चे हैं, इसके बाद कथित गैर राजनीतिक संगठन किसान यूनियन हैं।

सपा, बसपा रालोद सभी दलों के अनगिनत किसान संगठन हैं। इन सभी संगठनों से किसान जुड़े हैं। संगठनों के नेता सीधे राजनीतिक दलों से जुड़े हैं तो फिर किसानों की मांग उनका आन्दोलन तो स्वयं ही सरकारों की नज़र में नाटक या राजनीति बन जाता है। सरकार किसान आन्दोलन के मंच पर खड़े लोगों या किसान मुक्ति जैसी यात्राओं को देखते ही समझ जाती है कि अच्छा ये उस पार्टी, उस दल समर्थित संगठन के किसान हैं, हमारे दल के किसान इसमें नहीं हैं तो फिर सरकार ध्यान क्यों देगी। वो या तो आन्दोलन या मोर्चे को खरीद लेगी या फिर ताकत से कुचल देगी।

किसान मुक्ति मार्च में शामिल किसान। फोटो सोर्स- YKA

आप पिछले 2 तीन सालों के मंदसौर, महाराष्ट्र, उत्तर-प्रदेश, पंजाब में हुए या अक्टूबर माह में ही हुए किसान यूनियन द्वारा “किसान क्रांति यात्रा” जैसे किसान आन्दोलनों को देख लीजिये कि आखिर किसानों को क्या मिला? शांत रहे तो आश्वासन, हिंसक हुए तो गोली या लाठी।

कितने भोले-भले किसान समझ पाते हैं कि उनकी अगुवाई करने वाले वाकई में उनकी फसल का दाम चाहते हैं या अपनी राजनीतिक फसल उगाना चाहते हैं? जिस दिन किसान राजनीतिक मोर्चे छोड़कर स्वयं एकजुट हो जाएंगे, उसी दिन उनकी समस्याओं, उनकी फसलों के उचित दाम और नकद भुगतान होने लग जायेगा। वरना यात्राएं होती रहेंगी, उसमें डीजे पर गीत बजते रहेंगे, “मेरे देश की धरती सोना उगले उगले हीरे मोती मेरे देश की धरती…”।

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