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“2019 लोकसभा चुनाव नज़दीक है क्या इसलिए राम मंदिर का राग अलापा जा रहा है?”

ढाई दशक से भी ज़्यादा समय से चल रहा राम जन्मभूमि विवाद एक बार फिर गरमा गया है। भारतीय सियासत में राम मंदिर राजनीतिक मुद्दा बनकर रह गया है। 29 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुनवाई हुई जिसमें सर्वोच्च अदालत ने महज़ 3 मिनट तक चली सुनवाई के बाद अगली सुनवाई जनवरी 2019 तक के लिए टाल दी। इस मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश जस्टिस रंजन गोगोई, जस्टिस एस के कौल, जस्टिस केएम जोसेफ की पीठ कर रही है।

ऐसे में जब लगातार सुनवाई की तारीख को बढ़ाया जा रहा है तो सवाल उठता है कि 2019 के आम चुनावों में राम मंदिर कितना बड़ा मुद्दा होगा और भाजपा इसे किस रूप में भुनाती है?

भाजपा से जुड़े नेता अब खुलकर कहने लगे हैं कि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले में काफी देर कर रही है और देश के साधु संतों की धैर्य की सीमा अब टूट रही है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई बड़े अधिकारी भी यह कह चुके हैं कि सुप्रीम कोर्ट देश के करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं का सम्मान नहीं कर रही है। ऐसे में सरकार को ही अध्यादेश लाकर राम मंदिर बनवाने का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए।

रामलीला मैदान में प्रधानमंत्री मोदी, फोटो आभार- फेसबुक पेज, नरेंद्र मोदी।

वहीं दूसरी तरफ राजसभा से भाजपा के मनोनीत सांसद राकेश सिन्हा आगामी शीतकालीन सत्र में राम मंदिर निर्माण के लिए एक प्राइवेट मेंबर बिल लाने वाले हैं। ऐसे में देखना दिलचस्प होगा कि कौन-कौन सी पार्टी राकेश सिन्हा के बिल को समर्थन देगी। साधु-संत, आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद लगातार सरकार पर अध्यादेश लाकर राम मंदिर निर्माण के लिए दबाव बना रहे हैं।

पिछले महीने नागपुर में विजयदशमी के कार्यक्रम को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट को राम मंदिर पर जल्द ही निर्णय दे देना चाहिए, नहीं तो सरकार को कानून बनाकर राम मंदिर का निर्माण शुरू करना चाहिए।

एकाएक राम मंदिर मुद्दा क्यों गरमा गया?

इस मुद्दे के गरमाने के दो कारण स्पष्ट तौर पर देखे जा सकते हैं। पहला, 29 अक्टूबर के सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सबकी नज़र थी कि न्यायालय क्या फैसला सुनाएगी। लेकिन जनवरी 2019 तक मामले की सुनवाई टल जाने से कई हिंदूवादी संगठनों ने इसका विरोध किया।

दूसरा, इस मुद्दे को राजनीतिक पहलू से समझा जा सकता है। मौजूदा समय में सरकार पर राफेल डील और सीबीआई विवाद को लेकर विपक्ष लगातार आलोचना कर रही हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार जनता का इन मुद्दों से ध्यान भटकाना चाहती है इसलिए भाजपा अपने अन्य सहयोगी संगठनों द्वारा राम मंदिर का मुद्दा जानबूझकर गरमा रही है।

क्या अध्यादेश से मंदिर निर्माण संभव होगा?

कानूनी तौर पर बात करें तो सरकार अध्यादेश लाकर राम मंदिर का निर्माण शुरू कर सकती है, लेकिन इसमें एक बड़ा पेंच अटक सकता है।अगर सरकार अध्यादेश लाती है तो विपक्षी पार्टी सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती दे सकती है और मंदिर निर्माण रुकवा सकती है।

एक और बड़ा पेच यह है कि सरकार लोकसभा में तो कानून पास करा सकती है लेकिन राज्यसभा में बहुमत ना होने से यह कानून अधर में लटक सकता है,लेकिन राजनीतिक पंडितों का मानना है कि सरकार अध्यादेश लाकर मतदाताओं को यह संदेश दे पाएगी कि हम तो मंदिर निर्माण चाहते हैं लेकिन विपक्ष इसका विरोध कर रहा है।

भाजपा विरोधी लोगों का यह मत है कि चुनाव नज़दीक आते ही उसे अयोध्या और राम मंदिर याद आना शुरू हो जाता है।

राम मंदिर विवाद बीते 8 साल से सुप्रीम कोर्ट में है। इससे पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन सदस्यीय पीठ ने 30 सितंबर 2010 को 2:1  के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ ज़मीन को तीनों पक्षों सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और रामलला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए।

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि अभी जो राम मंदिर को लेकर स्थिति बनी हुई है 2019 के आम चुनावों तक यही स्थिति कायम रहेगी, इसमें कोई बदलाव होता नहीं दिख रहा है। अखिल भारतीय हिंदू सभा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करके कोर्ट से यह मांग की थी कि राम मंदिर विवाद पर जल्द से जल्द सुनवाई हो, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने याचिका खारिज कर दी और कहा कि जनवरी 2019 में इसकी सुनवाई की जाएगी।

आने वाले समय मे देखना दिलचस्प होगा कि राम का नाम लेकर भाजपा चुनावों में कितना फायदा उठा सकती है और विपक्ष को कितना घेर सकती है। विपक्ष के सामने भी बड़ी चुनौती है कि वो कैसे इसका सामना करती है और जनता के बीच अपनी साख वापस बना पाती है।

फोटो- Getty Images

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