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“क्या आदिवासी क्षेत्रों में नक्सलवाद के विस्तार में सरकार की भी भूमिका है?”

झारखंड एवं अन्य आदिवासी बहुल राज्यों मे नक्सलवाद एक गंभीर समस्या बनती जा रही है। आज झारखंड की जो वर्तमान परिस्थिति है उससे वहां की आम जनता त्रस्त है, परेशान है। झारखंड में बीते 18 वर्षों के कार्यकाल के दौरान जनता के जनहित की दृष्टि से सरकार अभी भी असफल है। नक्सलवाद एवं अन्य समस्याओं को बढ़ावा देने के लिए प्रत्यक्ष रूप से वहां की परिस्थितियां भी कहीं ना कहीं ज़िम्मेदार हैं।

नक्सलवाद की उत्पत्ति को बंगाल के एक छोटे से गांव नक्सबाड़ी के किसान आंदोलन से जोड़ा गया है। इस तरह के किसान आंदोलनों को माओवाद से भी जोड़ दिया जाता है लेकिन अगर किसान या गरीब मज़दूर वर्गों के आंदोलनों के इतिहास की ओर एक नज़र डालें तो देश की आज़ादी के पूर्व ऐसे कई आंदोलन सामंतों जागीदारों एवं विदेशी उपनिवेशवादी अंग्रेज़ों के शोषण और अत्याचार के खिलाफ होते आए हैं। तो क्या उसे भी ‘नक्सलवाद’ का नाम देंगे।

आज की विषम परिस्थितियों में हमें इस बात पर विचार करने चाहिये कि कहीं अन्याय और शोषण के खिलाफ हो रहे इस तरह के उग्र आंदोलनों को हम सिर्फ नक्सलवाद के चश्में से तो नहीं देख रहे हैं? जहां अत्याचार और शोषण छुपा हुआ हो।

न्याय ना मिलने और अपनी आवाज़ आवाम तक ना पहुंचाने की सूरत में मजबूरन हथियार उठाने पड़ गए हों। जिसमें युवा वर्ग भी उसका शिकार हो गया हो। या फिर नक्सलवाद की आड़ में कोई निरीह मासूम युवाओं को गलत मार्ग दिखा रहा हो।

हमें ज़रूरत है पर्दे के पीछे बैठे उस सिस्टम को समझने की जो ग्रामीण आदिवासी क्षेत्रों में दहशत का नंगा खेल खेल रहा है और सरकार निरीह आदिवासियों का संहार गलती से कर रही है। विषय बहुत गंभीर है अंतः इसका निवारण भी बड़ी गंभीरता से करना होगा।

आज झारखंड के अधिकांश क्षेत्र नक्सलवाद से प्रभावित हैं। यह बहुत दुख और वेदना की स्थिति है कि जिन आदिवासियों को शांतिप्रिय, सीधा सरल माना जाता था, आज वे हिंसक होते जा रहे हैं। यह कोई आम या साधारण बात नहीं हो रही है।

बीमारी को खत्म करने की बजाय बीमारों को खत्म करना यह कहां तक उचित है? बल्कि समाज में इस तरह की सामाजिक बीमारियों को खत्म करने के लिए वहां की परिस्थितियों को मद्दे नज़र रखते हुए उसपर गहन शोध और अध्ययन करने की आवश्यकता है ताकि मूल बीमारी को पकड़ा जा सके।

भटके हुए आदिवासियों के हथियारबंद संघर्ष को समाप्त करने के लिए अर्द्ध सैनिक बलों को आदिवासी क्षेत्रों में ऑपरेशन का नाम देकर निरीह निर्दोष ग्रामीण आदिवासियों पर कार्रवाई करने से इस समस्या को खत्म नहीं किया जा सकता। बल्कि इस तरह के ऑपरेशन द्वारा मारे गए निर्दोष ग्रामीणों को देखकर युवाओं में उग्रवाद को और बढ़ावा ही मिलेगा।

सरकार को इस तरह की गंभीर समस्याओं के समाधान के लिए अपनी प्रतिबद्धता दिखानी पड़ेगी। हिंसा के बदले हिंसा से किसी भी समस्या का समाधान नहीं है।

उस हिंसा के कारणों को समझना ज़रूरी है कि आखिर एक गरीब आदिवासी किसान, युवा या युवती अपने हल बैलों को छोड़कर, अपनी किताबों को फेंककर आखिर शस्त्र क्यों उठा रहे हैं। अगर शस्त्र उठाना ही था तो देश की रक्षा के लिए सीमा पर जाते, फिर यह विद्रोह क्यों और किसलिए? इस बात की गंभीरता को भी समझना अति आवश्यक है कि आखिर युवा वर्ग हिंसा की ओर क्यों अग्रसर हो रहे हैं।

नक्सलवाद को खत्म करने के लिए सरकार प्रत्येक वर्ष करोड़ों रुपए खर्च करती है। ग्रामीण आदिवासी क्षेत्रों में अर्द्धसैनिक बलों की छावनियां लगाई जाती हैं, जिससे ग्रामीण जनजीवन भी प्रभावित होते हैं। आए दिन आदिवासी ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घटनाएं बढ़ी हैं। समस्या खत्म होने के बजाय एक और समस्या पैदा हो रही है।

हम यह पूर्ण रीति से समझ सकते हैं कि कहीं ना कहीं सरकार की विकास नीतियां एवं सरकारी व्यवस्था और प्रशासनिक व्यवस्था वहां के जनहित में नहीं होने के कारण झारखंड जैसे राज्यों में इस तरह की समस्याएं बढ़ रही हैं। सरकार की उदासीनता और राजनीतिक उथल-पुथल एवं उनकी प्रतिबद्धता में कमी भी नक्सलवाद को बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार हैं।

जनता सुकून से निर्भयता के साथ स्वछंद जीवन जीना चाहती है, वे भी इस तरह की समस्याओं से निजात चाहती है। मैं पूछता हूं कि क्या सारे के सारे आदिवासी समुदाय नक्सल होते हैं? सरकार की व्यवस्था में निरंतर उन निरीह आदिवासी जनता की उपेक्षा होना न्याय ना मिलना बाहुबलियों द्वारा निरीह जनता पर अत्याचार और शोषण, विकास परियोजनाओं के कारण लगातार आदिवासी ग्रामीणों का विस्थापन और रोज़ी रोटी की तलाश में अन्य राज्यों की ओर मुखर होने जैसे मुद्दें भी कारण हैं।

अगर झारखंड में उग्रवाद की समस्याओं पर अध्ययन किया जाये तो निश्चय ही एक बात उभरकर आएगी कि जिन ज़िलों में उग्रवाद बढ़ा है उन गांवों मे ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति मज़बूत नहीं है, जो सरकार के लिए एक बड़ी चिंता का कारण है। अधिकांश लोग गरीबी रेखा से भी नीचे गुज़र बसर कर रहे हैं।

उन क्षेत्रों में ना शिक्षा है ना स्वास्थ्य है ना शुद्ध पेयजल की व्यवस्था है। लोग छोटे-छोटे नालों से मिलो दूर चलकर पानी का इंतज़ाम करते हैं। खाद्यान जैसे सरकारी कार्यक्रमों से भी वहां के लोग वंचित हो जाते हैं। जिसके कारण ग्रामीणों में असंतोष पैदा होता है। भूरिया कमीशन की एक रिपोर्ट में यह कहा गया था कि शेड्यूल एरिया में अनुसूचित जनजातियों की सुरक्षा एवं विकास को लेकर भारत के संविधान में विशेष प्रावधान का विधिगत रूप से पूर्ण अनुपालन ना होना भी एक गंभीर समस्या है।

अनुसूचित क्षेत्रों में भारत के राष्ट्रपति एवं प्रांतीय राज्यपाल का सीधा हस्तक्षेप होता है लेकिन उनकी उदसीनता की वजह से भी वहां कई तरह की समस्याएं पैदा हो रही हैं। पांचवी अनुसूची के तहत राज्यपाल के हाथों में उन क्षेत्रों का प्रशासन एवं शांति सुव्यवस्था के बारे में प्रत्येक वर्ष अनिवार्य रूप से भेजी जाने वाली सभी तरह की समस्याओं पर रिपोर्ट भेजे जाने की चर्चा की गई है लेकिन क्या अभी तक इस तरह की कोई रिपोर्ट दृश्य में नहीं आई है।

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(संदर्भ : झारखंड आदिवासी विकास का सच)

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