छठ में बिहार आकर लगता है कि समय आज भी 20 साल पीछे ही रुका हुआ है। छठ के तीन दिनों में बिहार अपने मूल रूप में लौटता है। पढ़ने-लिखने, कमाने बिहार से बाहर गए बच्चे लौटते हैं और दौरा-सूप उठाने लगते हैं।
थोड़े बदलाव ये हुए हैं कि नदियों, तालाबों के घाटों के बराबर ही मकान की छतों पर ‘घाट’ सजने लगे हैं। (अमित शाह या आदित्यनाथ बिहारी होते तो इस पर्व का नाम बदलकर ‘छत पर्व’ रख चुके होते)। अर्घ्य से पहले सेल्फी के लिए समय बचाए जाने लगे हैं। ठीक है।
खैर, अभी तक सूप या दौरे की जगह ‘बास्केट’ ने नहीं ली है। केले का ‘घौद’ ही होता है, ठेकुआ भी ‘स्वीट बिस्कुट’ जैसा कुछ नहीं बन पाया आज तक। अग्रेज़ी छोड़िए, मैंने शायद ही छठ पर कोई हिंदी गीत आज तक सुना हो।
अपनी जड़ों, लोकभाषाओं से जुड़े रहने का संदेश और किस पर्व में इस गहराई से देखने को मिलता है। मौसम के हिसाब से उपलब्ध कौन-सा फल नहीं जो इस पर्व का हिस्सा नहीं। क्या इस पर्व से प्यार करने को इतनी वजह काफी नहीं।
कुछ बुद्धिजीवी लोग इस छठ का पूरी तरह विरोध करते हैं। हमें डर उनसे नहीं है। हमें डर लाउडस्पीकर पर बजने वाले नए छठ गीतों से है। प्रकृति पूजा के पर्व छठ में खेसारी लाल यादव, मनोज तिवारी के गीत ध्वनि प्रदूषण की तरह हैं। एक दिन ये हमारी जड़ों को खा जाएंगे। विरोध कीजिये इन फूहड़ संगीत प्रेमियों का। विरोध कीजिये इस 36 घंटे लंबे निर्जला व्रत का, इसे छोटा करने के प्रयास होने चाहिए।
हठ या डर के नाम पर बीमार या बूढ़ी होती औरतें इस व्रत को नहीं छोड़ पाती, इसके लिए व्यापक जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए मगर छठ के मूल स्वभाव में कोई गड़बड़ी नहीं है। बिहार में इतनी व्यवस्था, साफ-सफाई और किसी सरकार के बस की बात नहीं है।
इस तीन दिन के पर्व के बाद वापस अपनी ट्रेन पकड़कर, बहुत सारा ठेकुआ लेकर बिहारी फिर से न्यू इंडिया का हिस्सा हो जाता है। ठेकुआ इस सनातन बिहार और न्यू इंडिया के बीच का पुल है।
आप बिहार के सबसे ‘पॉश’ शहर से ही क्यों ना लौटें, दिल्ली वाला कहेगा कि ‘गांव’ से लौटा है। कोई बात नहीं दिल्ली शहर, तुम्हारे पास मॉल है, मेट्रो है, फ्लाईओवर है, बुद्धिजीवी हैं, हमारे पास छठ है, ठेकुआ है।