दुनिया के सबसे वंचित फिल्मकारों में ऋत्विक घटक का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ के ज़रिए घटक ने मेलोड्रामा विधा को एक नई ऊंचाई प्रदान की। मेलोड्रामा को तार्किकता से प्रेरित किया लेकिन फिर भी उन्हें वह स्थान नहीं मिला जो कि उन्हें मिलना चाहिए था।
भारतीय सिने इतिहास में फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ एक विलक्षण स्थान रखती है। निर्देशक ऋत्विक घटक सत्यजीत रे के समकालीन थे। सिर्फ बदकिस्मती ही थी कि वो सत्यजीत के बराबर प्रसिद्ध नहीं हो सकें। अन्यथा विधा के स्तर पर ऋत्विक सत्यजीत से कमतर नहीं थे। किस्मत एवं अवसर ने सत्यजीत को भारतीय सिनेमा का अंतरराष्ट्रीय प्रतिनिधि बना दिया, जबकि उनके समकालीन ऋत्विक अज्ञात एवं सम्मान विमुख रहने को विवश रहें।
घटक ने एक गमगीन ज़िन्दगी गुज़र की। आपकी अनेक फिल्में लम्बे अरसे तक रिलीज़ नहीं हो सकीं, जबकि कुछ ने दिन के उजाले को भी नहीं देखा। घटक को उन्हें बीच रास्ते में ही छोड़ देना पड़ा, या यूं कहें वे फिल्में ही बेवफा हो गईं।
आप अपने सपनों की ताबीर की मुकम्मल तस्वीर नहीं देख सकें। सफलता के इंतज़ार में घोर उदासी एवं एकांत के शिकार हो गए। साठ के दशक की शुरुआत में शराब की लत से मनोरोग की चपेट में आए। तबीयत बिगड़ने पर सन पैंसठ में पहली मर्तबा आपको अस्पताल में दाखिल किया गया लेकिन यह तो महज़ एक दुखदायी अनुभव यात्रा की शुरुआत थी, क्योंकि ताउम्र जब तक ऋत्विक जीवित रहें उनका मनोरोग अस्पताल आना-जाना लगा रहा।
सन् 1976 में 51 वर्ष की आयु में असामयिक निधन होने के साथ आपकी विलक्षण रचनात्मकता घुटकर मर गई। ऋत्विक घटक की फिल्म ‘मेघे ढाका तारा’ को सर्वश्रेष्ठ भारतीय फिल्म होने का गौरव प्राप्त है।
‘मेघे ढाका तारा’ पूर्वी पाकिस्तान (बांग्लादेश) से आए तथा कलकत्ता में गुज़र कर रहे शरणार्थी परिवार की एक युवती की गमज़दा कहानी बयान करती है। यहां उसका परिवार एक साधारण ज़िन्दगी गुज़र कर रहा है। फिल्म नीता के किरदार में मध्यवर्गीय युवती की कथा को लेकर बढ़ती है। नीता का जीवन मध्यवर्गीय अवरोधों से दो-चार है। परिवार को चलाने के लिए उसे काम करना होगा। कॉलेज के फाइनल इयर तक आते-आते वो काफी सहयोग करने लगी।
अपनी ज़िम्मेदारी निभाते हुए वो पिता का सहयोग करती है लेकिन आए दिन सदस्यों की ज़रूरतें बढ़ रही थीं, जो कि मानसिक दबाव का कारण बन रही थी। नीता के इस कठोर संघर्ष में प्रेरणा एवं सहारे के रूप में शंकर एवं सनत जैसे लोग थे।
गायन में अपना करियर बनाने के लिए नीता का भाई उसके प्यार-दुलार का फायदा अकसर उठाता रहा जबकि दूसरी ओर उज्ज्वल भविष्य की उम्मीद लिए मंगेतर सनत पीएचडी कर रहा है। परिवार के सदस्य अपने-अपने अवसरवादी तरीके से प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं। जीने के व्यक्तिगत संघर्ष में सभी अपने हिस्से का दबाव नीता के हिस्से में जोड़ रहे हैं।
ये तमाम बातें नीता के लिए अत्यंत पीड़ा एवं संघर्ष का सबब बन रही है जो कि अंततः परिवार की एकमात्र खेवनहार रह गई थी। परिवार के हित में नीता अपना सर्वस्व त्याग देती है, अपनी व्यक्तिगत खुशियां, धन एवं स्वास्थ्य को उसने भूला दिया। दुख की इंतहा देखिए कि उसके एहसान एवं त्याग को आसपास के लोगों ने कभी सम्मान नहीं दिया।
अभिनय में नीता के किरदार में सुप्रिया चौधरी एवं सनत के रोल में निरंजन रॉय ने दमदार भूमिकाओं का निर्वाह किया। सुप्रिया जी का किरदार एक दिलचस्प रूप लिए हुए है।
ऋत्विक घटक के ‘मेघे ढाका तारा’ के ज़रिए चित्रात्मक रूप से एक बुलंद सनक एवं अत्यधिक पूर्ण किंतु उत्तेजक रूप से मोहक एवं गम्भीर रूप से निर्धनता, मोहभंग तथा वनवास का व्यक्तिगत आख्यान प्रस्तुत हुआ। प्रकाश एवं छाया के रोचक परस्पर क्रिया के साथ आक्रामक ध्वनियों का इस्तेमाल (जो कि एक प्रभावपूर्ण भावनात्मक स्तर की रचना कर गए) का इस्तेमाल हुआ।
घटक एक अद्भुत संवेदनात्मक अनुभव यात्रा निर्मित करने में सफल रहें जिसमें कि मानवीय आत्मा का संस्थागत तरीके से विघटन का चित्रण मिलता है। परिवार चलाने के लिए पढ़ाई त्याग देने को बाध्य हो जाने बाद नीता पर क्या गुज़री?
सीढ़ियों से उतरती नीता का दृश्य याद करें, मां खाना बना रही, जहां से सामान्य से अधिक आवाज़ें छन कर आ रही हैं। मां सनत एवं नीता की चुपके से जासूसी कर रही जो कि रिश्ते को लेकर उसकी चिंता एवं खीझ को व्यक्त करती है। चिंता इसकी कि वो परिवार की आय का एकमात्र सहारा खो देगी।
नीता की तुलनात्मक छायाएं, पहली वो जब जालीदार खिड़की के समक्ष खड़ी होकर सनत का खत पढ़ रही। दूसरी वो नीता जो कि शंकर की वापसी के बाद खिड़की के उस पार छिपी हुई प्रकट हुई।
नीता, शंकर द्बारा गुरुदेव रवीन्द्रनाथ का एक दर्द भरा गीत गाने के साथ दर्द की अभूतपूर्व दुनिया रचती है। दोस्तोवस्की की रचना ‘क्राइम एण्ड पनिशमेंट’ में बोझ एवं ज़िम्मेदारी के संदर्भ में कुछ ऐसा ही था।
ऋत्विक घटक ने ‘मेघे ढाका तारा’ को बंगाल विभाजन की त्रासद परिणीति का रूपक बनाने में सफलता अर्जित की। गरीबी, स्थानांतरण, स्वार्थ एवं आंतरिक मतभेदों के परिणाम में एक बंगाली परिवार किस तरह से टूट-बिखर गया इसे दिखाया गया है। दूर क्षितिज को दो भागों में विभाजित करती रेलगाड़ी की आकृति बार-बार दिखाना दरअसल घर नामी विरासत के विभाजन का प्रतिबिम्ब था।
नीता आत्म-निषेध, ज़रूरत एवं शोषण से उपजी बर्बादी की स्थिति से उबरने की कोशिश से हार नहीं रही। उसकी वेदना से फूट पड़ना, बेघर शरणार्थियों की आत्मा से उपजी तड़प का रुदन प्रतिबिम्ब थी।
पूरे कथा क्रम में घटक ने मानवीय प्रवृत्ति एवं जीने की इच्छा को यथार्थ के कठोर सत्य एवं निर्दयता के स्तर तक भट्टी में उबाला। घटक की फिल्म निश्चित रूप से वैचारिक एवं अकाट्य किस्म की है लेकिन इसमे बुलंद अथवा अहंकारी आदर्शों को कोई जगह नहीं मिली। इस दुनिया में भावना से उपजे परोपकार के लिए मामूली या कहें कुछ भी जगह नहीं। उसूलों व जज़्बातों को यहां एक लग्ज़री का स्थान दिया गया, स्वयं सिद्ध के इस निर्मोही स्तर को पाकर आपने सिनेमा को महानतम एवं अनिवार्य दुखगाथा बना डाली।
अपनी उजाड़ दुनिया के पूरे परिप्रेक्ष्य में ‘मेघे ढाका तारा’ भारतीय सिनेमा की एक अनिवार्य एवं महानतम मौलिक प्रस्तुतियों में एक थी। जीवन के अंतिम अरण्य में ऋत्विक घटक ने लिखा,
मुझे एक कलाकार नहीं कहें, ना ही मुझे सिनेमा का मर्मज्ञ सम्बोधित करना ठीक होगा। सिनेमा मेरे लिए एक कला नहीं, यह लोगों की सेवा करने का एक माध्यम मात्र है। मैं एक समाजशास्त्री नहीं इसलिए मुझे सिनेमा को लेकर जनलोकप्रिय मान्यता कि ‘सिनेमा लोगों को बदलने में सक्षम’ पर यकीन नहीं। कोई फिल्मकार दुनिया को कभी बदल नहीं सकता।
ऋत्विक घटक ने ना लोगों को और ना ही दुनिया को बदला लेकिन वो आज भी अपने प्रशंसकों के बीच अपनी विलक्षण प्रतिभा के साथ ‘मेघे ढाका तारा’ बनकर जीवित हैं।