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“लोकतंत्र के तीनों स्तंभों से एक आम नागरिक के रूप में मुझे कोई उम्मीद नहीं”

हर 5 बरस बाद जनता यही सोचकर वोट देती है कि इस बार उसका वोट लोकतंत्र को मज़बूत करेगा और लोकतंत्र के तले बने सिस्टम में उसको भी कोई वाजिब स्थान मिलेगा। वास्तव में स्थिति इसके बिल्कुल इसके उलट है। लोकतंत्र में जनता का काम बस 5 बरस में एक बार ही होता है, तो ऐसे में जनता का क्या, जो लोकतंत्र तले बने सिस्टम में अपनी भागीदारी चाहता है?

जब हम लोकतंत्र तले बने सिस्टम की बात कर रहे हैं, तो उस सिस्टम के कुछ अंगों की बात करना भी महत्वपूर्ण हो जाता है। जी हां, हम विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की ही बात कर रहे हैं। तो सबसे पहले शुरू करते हैं विधायका से। विधायका राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत बनी संगठन या इकाई है जिसे कानून बनाने व जन-नीतियां बनाने का अधिकार है।

आज़ादी के 7 दशक बाद विधायिका का हाल यह हो चला है कि पैसे, बाहुबल, पहुंच के दम पर ऐसे लोग सिस्टम में चुनकर आ रहे हैं जिनका जन सरोकारों से दूर-दूर तक लेना-देना नहीं है। सवाल यह है कि इन लोगों को जनता ही तो चुनती है?

जनता करे तो क्या करे, जब व्यवस्था में उसकी हिस्सेदारी बस इतनी ही बच गई है कि उसकी पसंद का उम्मीदवार ही सिस्टम से नदारद हो चला है और जनता कुछ बोल सकने की स्थिति में है नहीं क्योंकि उसके समक्ष रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं। तो जिस विधायिका से उसे उम्मीद है कि वह उनके लिए काम करेगी, उनसे आस टूटने के बाद जनता जाए तो जाए कहां। वाकई लोकतंत्र मज़बूत हो रहा है?

विधायिका से आगे बढ़ने पर बात होनी चाहिए कार्यपालिका की। कार्यपालिका सरकार का वह अंग होती है जो राज्य के शासन का अधिकार रखती है। कार्यपालिका कानून को कार्यान्वित करती है और उसे लागू करती है। सवाल यह है कि कानून लागू किस प्रकार हो रहे हैं और जनता को उससे कितना फायदा पहुंच रहा है।

गरीब और मध्यम वर्गीय परिवारों के बीच बढ़ते असंतोष से तो यही लगता है कि कार्यपालिका का काम संतोषजनक बिल्कुल भी नहीं है। तो क्या वाकई लोकतंत्र मज़बूत हो रहा है?

अंतिम उम्मीदें बचती हैं न्यायपालिका से। जनता को भरोसा रहता है कि उसपर जो शोषण हो रहा है उसके लिए न्यायपालिका ही आस है, जहां उसे न्याय मिल सकता है। जब न्यायपालिका और सत्ता ही टकराने के मूड में आ जाए तो जनता की उस उम्मीद का क्या? या यूं कहें कि सत्ता बहुमत में हो तो वह यह समझ लेती है कि जनता ने उसे ही सारे अधिकार दे दिए हैं इसलिए न्यायपालिका से सीधे टकराने और उसके फैसले को लागू नहीं करने का साहस सत्ता कर बैठती है। ऐसे में क्या वाकई लोकतंत्र मज़बूत हो रहा है?

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फोटो प्रतीकात्मक है। फोटो सोर्स- Getty

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