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क्या महिलाओं के प्रति हमारा सामाजिक व्यवहार लोकतांत्रिक है?

working woman

काम आर्थिक उदारीकरण के दौर में बाज़ार का यह दावा हुआ करता था कि उसने नारीवाद से किसी भी किस्म का ताल्लुक नहीं रखते हुए स्त्री के सशक्तीकरण के क्षेत्र में अन्यतम उपल्बिध्याँ हासिल कर ली है। इस बात से कोई इंकार नहीं कि आर्थिक उदारीकरण के दौर में सस्ते श्रम की चाह में महिलाओं को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं किया। परंतु, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर करते समय बाज़ार ने नर-नारी विषमता या असमानता के सामाजिक पहलू पर कोई ध्यान नहीं दिया।

उल्टा पूंजी की गतिशीलता के दौर में बाज़ार ने पितृसत्ता के नए रूप रचे, जो अब धीरे-धीरे #MeeToo आंदोलन के दौर में उभर कर सामने भी आ रहे है। आर्थिक उदारीकरण ने महिलाओं को अपने कार्यक्षेत्र में काम करते हुए “पावर वुमेन” तो बनाया परंतु, पूंजी की संस्कृति ने उसकी यौनिकता का जमकर शोषण भी किया। अब तक कई सामाजिक चितकों का यह विश्वास था कि महिलाएँ घर के देहरी को लांघकर सार्वजनिक क्षेत्रों में भागीदारी करने में सफल रही तो महिलाओं के अस्मिता के सवाल नए सिरे से पुर्नपरिभाषित होंगे और महिलाओं को परिवार और विवाह संस्था के शोषण से मुक्ति भी मिलेगी। ज़ाहिर है उन्होंने स्त्री-पुरुष असमानता का मूल्यांकन लैंगिक नज़रिये से नहीं किया था, उनके मूल्यांकन में व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा अधिक महत्त्वपूर्ण थी।

बतौर पुरूष वूमन स्टडीज रिसर्चर मेरे आस-पास के पुरूष मित्र अक्सर मुझसे यह सवाल करते है कि मैं सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में महिलाओं के #MeeToo अभियान को कैसे देखता हूँ? इसमें कोई शक नहीं है कि वह पहले ही दिमागी कोने में महिलाओं के शिकायतों को गलत मान चुके होते हैं।महिलाओं के शोषण की शिकायतों को लेकर उनकी जो आपत्तियाँ होती हैं उनको एहसास ही नहीं होता है कि किसी भी कार्यक्षेत्र में सामाजिक समाजीकरण से प्रशिक्षित पुरुष का जो व्यवहार है वह पूरी तरह से अनुचित है। सामंती सोच या पूर्वाग्रहों से संचालित होते हुए महिला सहकर्मियों के लिए पुरुष सहकर्मी अपने व्यवहार से कितना अनुचित महौल बना रहे होते है इनका उनको कोई इल्म नहीं है, वह पूरी तरह बेख़बर ही होते है।

मुझे याद है जब विशाखा गाइडलाइन्स के एक वर्कशॉप में अधिकांश पुरुष सहभागी मित्रों की सांसे फूलने लगी थी और सर पिटते हुए बोलते थे “यार, ये तो हद है, किसी महिला सहकर्मियों को ध्यान से देख भी नहीं सकते है किसने बनाया यह बकवास कानून?” थोड़ी ठंडी सांस लेते हुए जब मैंने कहा “यार मेरे, देखने और घूरने में फर्क होता है, तुम्हारा किसी महिला को देखना और लगातार घूरना कार्यक्षेत्र में उसको असहज बनाता है।” मेरे जवाब पर मित्र अब मुझे घूर रहे थे। जैसे कह रहे हो-तुम मर्द होने के नाम पर कलंक हो, तेरा कुछ नहीं हो सकता है।

यूरोप में काम कर रहे अपने भारतीय दोस्तों से #MeeToo के संदर्भ में बात करने से पता चला, वहाँ उनको ज्वाइंन कराने से पहले दो हफ्ते इस बात की ट्रेनिंग दी गई कि दफ्तर में काम करते हुए अपने सहकर्मीयों के साथ उसका व्यवहार कैसा होना चाहिए? क्योंकि दफ्तर में श्वेत-अश्वेत, समलैंगिक, इतरलैंगिक, दूसरे देश के भाषा-भाषी सभी एक साथ काम करते हैं। इतनी सर्तकता के बाद भी वहाँ भी सार्वजनिक क्षेत्र में उत्पीड़न की घटनाएँ सामने आती रहती हैं। समझने की जरूरत है कि महिलाओं के लिए कार्यस्थल पर कई तरह के भटकाव हैं, जिसके कारण कई तरह के अनैतिक काम करना लोगों के लिए आसान हो जाता है। यह भी समझना जरूरी है कि अनुचित व्यवहार हमेशा यौन-शोषण नहीं होता, वह इस तरह का भी होता है जो कार्यस्थल पर महिलाओं को ही नहीं किसी को भी अपना सवश्रेष्ठ देने से रोकता है। हमारे यहाँ तो विशाखा गाइडलाइन्स के लागू होने के बाद भी कितनी ही सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं में महिलाओं के शिकायत की कमेटी तक गठित नहीं है, दफ्तर में व्यक्ति के सार्वजनिक व्यवहार पर ट्रेनिंग या जानकारी दूर की बात है। बहरहाल #MeeToo में आ रही शिकायतें इतना तो बताती हैं कि किसी भी कार्यस्थल पर लोगों को अपने व्यवहार के प्रति सचेत होना जरूरी है।

इस तरह के एक नहीं कई अनुभव हैं जो यह बताते हैं कि #MeeToo के आंदोलन के असर को स्थायी बनाने के लिए लड़कों के परिवेश का तरीका बदलना होगा। क्योंकि दुनियाभर के समाज में आश्चर्यजनक रूप से उन सामाजिक व भावानात्मक मुद्दों पर बात करने में सहजता महसूस कर रहे है, जिस पर पहले बात तो होती थी पर दबे ज़बान से किसी से मत कहना हिदायत के साथ। जब अपने ही देश में एक नेता और कई प्रभावशाली व्यक्तियों का सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में व्यवहार कटघरे में आ गए है तो यह समझने के लिए काफी है कि महिलाएँ खुद के बारे में जिस तरह से सशक्त हुई हैं यह स्पष्ट बदलाव है और इस बदलाव को कायम रखना बहुत अधिक ज़रूरी है। क्योंकि भले ही मी टू की अधिकांश शिकायतें सार्वजनिक कार्यक्षेत्र से आ रही हो आधी आबादी के लिए तो उसके निजी कार्यक्षेत्र का दायरा भी सुरक्षित नहीं है।

#MeeToo का पूरा आंदोलन पुरुषों को बदनाम करने लिए या व्यक्तिगत रंजिश निकालने का आंदोलन नहीं हैं। इसका सम्बंध पुरुषों व महिलाओं के बीच सत्ता सम्बंधी रिश्तों को अधिक समानता की दिशा देने से है। इसके लिए पालकों को लड़को और लड़कियों को समानता के साथ परवरिश देना होगा, जो केवल लैगिंक, वर्गीय, जातीय, नस्लीय, धार्मिक और सारी लोकतांत्रिक समानता पर आधारित होगा। हमें इस बात का एहसास होना चाहिए किसी के भी व्यक्तिगत दायरे की सीमा रेखा होती है जिसका उसकी अनुमति के बगैर उल्लंघन नहीं होना चाहिए, इसी से सार्वजनिक कार्यक्षेत्र में किसी के लिए भी सुरक्षित और बेहतर कार्यक्षेत्र का महौल बनाने में मदद मिलेगी। संभव है भविष्य में सार्वजनिक कार्यक्षेत्र सभी विविधतापूर्ण अस्मिता वाले लोगों को एक साथ काम करना पड़े।

भारतीय समाज में मर्दवादी पितृसत्ता और तमाम असमानता को मिटाने के लिए नकारात्मक नज़रिये वाले मूल्यों का दमन करने के लिए शुरूआत हमें सामाजिक समाजीकरण से ही करनी होगी। क्योंकि सामाजिक समाजीकरण के सामंती और पूर्वाग्रही विचार ही हमें समाज में हमारे आचार-विचार और व्यवहार को तय करते है।इसी के जरिए हम अपने विचारों, भावनाओं और गतिविधियों को नियंत्रित करके खुद को और दूसरों को सुरक्षित रखने का गुर सिखना होगा। एक लोकतांत्रिक देश और लोकतांत्रिक देश में बतौर नागरिक हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हमारा सामाजिक व्यवहार भी लोकतांत्रिक हो। ये बात दीगर बहस की जरूर हो सकती है कि लोकतांत्रिक देश में समाज और समाज में काम करने वाली निजी या सार्वजनिक संस्थाएं लोकतांत्रिक है या लोकतांत्रिक होने के सफर में है।

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