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“कॉरपोरेट घराने की चापलूसी की कहानी बता रहा है यह ऑटो वाला”

ऑटो वाला

ऑटो वाला

दिल्ली में जब गर्मी उफान पर थी तब मैं ओखला में कार की सर्विसिंग कराने गया था। कार छोड़ने के बाद घर लौटने के लिए ऑटो रिक्शा ढूंढने लगा। थोड़ी देर में एक ऑटो वाला मिल गया और मैंने उसे बदरपुर चलने के लिए कहा। उसने कहा, “ठीक है साहब, कितना दोगे?” मैंने उसे मीटर पर चलने की बात कहते हुए बोला कि अब तो किराया भी बढ़ गया है, फिर क्या परेशानी है? उसने कहा कि साहब महंगाई बढ़ गई है और कम पैसों में गुज़ारा नहीं होता है।

मैं सोच रहा था कि अगर बेईमानी चरित्र में ही हो तब इंसान लाख बहाने बना लेता है। इसी बेईमानी के मुद्दे पर सरकार बदल गई। मनमोहन सिंह चले गए और नरेन्द्र मोदी आ गए लेकिन बेईमानी है कि लोगों की नसों में जड़ें जमाकर बैठी हैं। मैंने पूछा यह कहावत सुने हो, “तेते पांव पसारिए जेते लंबी ठौर?” अपनी हैसियत के मुताबिक रहोगे तब महंगाई कभी कष्ट नहीं देगी।

उसे समझाते हुए मैंने कहा कि अभी मैं कार से घूमता हूं लेकिन जब मेरी औकात नहीं थी तब बस में चलने पर मुझे शर्म नहीं आती थी। तुमको अगर इतना ही कष्ट है तब जाकर परीक्षा पास करो और सरकारी नौकरी ले लो। कौन रोक रहा है तुम्हें? यह जनतंत्र है, एक चायवाला भी प्रधानमंत्री बन सकता है। तुम कोशिश क्यों नहीं करते?

शायद मैंने उसकी दुखती नस पर हाथ रख दिया था। जलती हुई मुस्कान लिए उसने कहा, आरक्षण के ज़माने में सरकारी नौकरी पाना रेगिस्तान में तेल निकालने के बराबर है। संविधान बनाने वाले ने तो कुछ ही समय के लिए आरक्षण का प्रावधान रखा होगा लेकिन यह है कि सुरसा के मुंह की तरह खत्म होने का नाम ही नहीं ले रही है। पिछड़ों का भला हो ना हो, पिछड़ों की राजनीति करने वालों का ज़रूर भला हो रहा है।

मैंने पूछा, “फिर प्राइवेट नौकरी क्यों नहीं कर लेते?” उसने हंसते हुए कहा कि साहब आपको लगता है प्राइवेट सेक्टर में काबिलियत की कद्र है? जो काबिल हैं उन्हें नीचे खींचने में सारे लोग लगे रहते हैं। प्राइवेट संस्थाओं में चाटुकार लोग आगे बढ़ जाते हैं, भले ही वे गधे क्यों ना हों।

हमारी बातचीत जारी रही और वह लगातार आग उगलता रहा। उसने रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता की पंक्ति के ज़रिए अपनी बात रखी। उसने कहा, आपको दिनकर की पंक्ति तो याद ही होगी जिसमें उन्होंने कहा था, “यदि सारे गधे किसी व्यक्ति को मारना शुरू कर दें तब समझो वह व्यक्ति प्रतिभाशाली नहीं बल्कि महाप्रतिभाशाली है।”

मैंने पूछा भाई यह सब तुम कैसे जानते हो? उसने कहा, “मैं भी कविता और कहानियां लिखता हूं। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित भी होती हैं लेकिन उससे परिवार थोडे़ ही ना चलता है। भला हो इस ऑटो का, जिसने कितनी ही कविताओं और कहानियों को बिखरने से बचा लिया। प्राइवेट जॉब भी करके देख लिया। वहां तो आत्म-स्वाभिमान की ऐसी-तैसी हो जाती थी।”

क्या सोमवार और क्या रविवार, बस काम ही काम। बीमार पड़े तब पैसे कटते हैं और छुट्टी करो तब हमेशा के लिए ही ऑफिस से छुट्टी कर देते हैं। मैं कोई गधा नहीं जो पैसों के लिए चापलूसी करते हुए मालिक के सामने अपनी दूम हिलाता रहूं।

इस दौरान मैं सोच रहा था कि सहना भी तो एक प्रतिभा है। मालिक की हां में हां मिलाना भी तो एक प्रतिभा है। दूम हिलाना, गधे की तरह सहना भी एक प्रतिभा ही है। मालिक के सामने नौकर दूम हिलाता है और मालिक क्लाइंट के सामने। जो सही तरीके से अपनी दूम हिलाने में सक्षम हो जाए वह आगे बढ़ जाता है। यह बात शायद ऑटो वाले की समझ में नहीं आई।

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