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“क्या सुप्रीम कोर्ट को पटाखे जलाने पर रोक नहीं लगानी चाहिए थी?”

पटाखे

पटाखे

पटाखों के धुंए से प्रदूषण होने की बातें हमने बहुत सुनी हैं। जब भी ज़िक्र पटाखों का होता है तब दिवाली का त्यौहार हमारे ज़हन में सबसे पहले आता है। इस दिवाली, पटाखें प्रदूषण से ज़्यादा लोकतंत्र के सबसे मज़बूत स्तंभ ‘न्यायपालिका’ की अवमानना का कारण बन रहे थे। पटाखों के धुंए मानो न्यायपालिका पर हंस रहे हो और उनकी आवाज़ चिल्ला-चिल्लाकर कह रही हो, मैं तुम्हारे फैसलों को नहीं मानता, तुम मूक दर्शक बनकर बैठे रहो।

पटाखे जलाने वाले इसे अपनी जीत समझ कर इठलाते रहे लेकिन सच तो यह है कि हार लोकतंत्र की हुई, उस लोकतंत्र की जिसके शिल्पकार वही लोग हैं जिन्होंने अदालत की हार को अपनी जीत समझा। उन्हें शायद इसका अंदाज़ा भी नहीं रहा होगा कि पटाखों की आवाज़ उनकी हार के इतिहास को उसी धमक के साथ लिख रहा है, जिस धमक से पटाखे फूट रहे थे।

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद मेन स्ट्रीम मीडिया से लेकर सोशल मीडिया पर यह चर्चा का विषय बन गया कि क्या त्यौहार मनाने का समय अब कोर्ट तय करेगी? क्या किसी निर्धारित समय के बाद खुशियां मनाना ज़ुल्म हो सकता है? वो भी तब जब आप किसी पर्व का इंतज़ार साल भर करते हो और आपसे कह दिया जाए सिर्फ दो घंटे ही आप जश्न मना सकते हैं, इसके बाद आपका जश्न अपराध की श्रेणी में होगा। इस दिवाली कुछ ऐसा ही हुआ।

सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि रात 8 से 10 के बीच ही पटाखे जलाए जा सकते हैं। उसके बाद पटाखे जलाना दंडनीय अपराध होगा। कोर्ट ने बढ़ते प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए यह फैसला लिया था, जिसकी लोगों और प्रशासन ने जमकर धज्जियां उड़ाई। सोचने वाली बात यह है कि जिस भारत देश में सामान्य प्रशासनिक कार्य के लिए मुकम्मल पुलिस नहीं है, जहां किसी भी घटना के घटित होने के बाद पुलिस पहुंचती है, वहां कोई तंत्र यह पता लगाने में कैसे सफल हो सकता है कि किसने 10 बजे और किसने 10 बजकर एक मिनट पर पटाखे जलाए।

प्रशासन के लिए इस फैसले को अमल में लाना किसी पहाड़ की चढ़ाई करने जैसा काम था, तभी तो उम्मीद से बढ़कर असफलता हाथ लगी।सोशल मीडिया पर एक बड़े तबके ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को एक धर्म विशेष के धार्मिक मान्यतों पर कुठाराघात के रूप में देखा। पिछले दिनों कोर्ट के कुछ फैसलों से धर्म विशेष के एक तबके में असंतोष ने जन्म लिया है कि कोर्ट धर्म विशेष की रीति रिवाज़ पर हमलावर हो रहा है, इसलिए लोगों ने दिवाली से पहले ही मन बना लिया था कि इस दिवाली वे कोर्ट की अवहेलना करेंगे।

पर्यावरणीय दृष्टिकोण से इस फैसले को आदेशात्मक ना होकर एक सलाह और जनमानस से विनती के रूप में होना चाहिए था। सरकार व अदालत को लोगों से कम से कम पटाखे जलाने की अपील करनी चाहिए थी। पर्यावरणीय दृष्टिकोण से अधिक घातक पटाखों के उत्पादन पर रोक लगाना चाहिए था। अव्यवहारिक फैसले ना सर्फ अदालत की गरिमा को कम करती है, बल्कि लोकतंत्र के सबसे मज़बूत स्तंभ पर लोगों का विश्वास भी कम होता है। हमें यह समझना होगा कि ना तो अदालत समाज के बिना हो सकता है और ना ही बिना अदालत के एक सभ्य लोकतांत्रिक समाज।

दोनों को ही व्यवहारिक रूप में दृढ संकल्पित होना होगा। एक की भी हार लोकतंत्र की हार है। यह लोकतंत्र भी तब तक ही है, जब तक हम और आप हैं। ज़िन्दगी को धुंआ में नहीं उड़ाया जाता। पर्यावरण हम और आप पर कर्ज़ है, हमारी वसीयत नहीं।

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