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“शिक्षा के अभाव में एक श्रमिक के घर शिक्षक या अधिकारी नहीं, श्रमिक पैदा होगा”

किसान

खेत में किसान

आज हमें अपने भारतीय समाज में लोगों के आर्थिक और सामाजिक असमानता को समझने की ज़रूरत है। गॉंव-देहात का एक गरीब श्रमिक  या किसान एक दिन में दिहाड़ी के पांच सौ रुपये कमाता है। उसी पांच सौ रुपये  में उसे अपने परिवार की ज़रूरतों को भी पूरा करना पड़ता है। अगर पांच से अधिक सदस्य उसके परिवार में हैं तब घर-परिवार चलाना भी मुश्किल हो जाता है। ऐसे हालात में वह गरीब श्रमिक अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा भी नहीं दे सकता।

ज़ाहिर सी बात है कि शिक्षा के आभाव में एक श्रमिक के घर कोई शिक्षक, क्लर्क या अधिकारी पैदा नहीं होगा बल्कि एक श्रमिक ही पैदा होगा जो किसी फैक्ट्री, सड़क या भवन निर्माण में लगा होगा।

एक सर्वे के मुताबिक भारत में सर्व शिक्षा अभियान के तहत 6 से 14 वर्ष के बच्चों और बच्चियों के लिए शिक्षा अनिवार्य है लेकिन अक्सर गरीब परिवार के बच्चे-बच्चियां दसवीं कक्षा तक पहुंकर आर्थिक तंगी के कारण पढ़ाई रोक देते हैं। परिवार की सबसे ज़्यादा चिंता यह रहती है कि बेटी अब बड़ी हो रही है और जल्द इसके लिए कोई लड़का देखना पड़ेगा।

कम उम्र में बच्ची की शादी कराने पर कई तरह की परेशानियां उत्पन्न होती हैं। जब वही बच्ची मॉं बनती हैं तब जच्चा और बच्चा दोनों की सेहत पर प्रभाव पड़ता है। सही भोजन ना मिल पाने की वजह से मॉं की सेहत तो खराब होती ही है और बच्चा भी कुपोषण का शिकार हो जाता है। ऐसे में हमें समझना होगा कि इससे नुकसान किसका हो रहा है।

अक्सर भारत के गॉंव-देहातों  में रहने वाला गरीब किसान या मज़दूर कई तरह की समस्याओं से घिरा रहता है। अगर बारिश नहीं हुई तब फसल और अनाज की पैदावार प्रभावित होती है। कई दफा मज़दूरी भी तो व्यर्थ हो जाती है क्योंकि कड़ी मेहनत के उपरांत अच्छी दिहाड़ी नहीं मिलती।

एक कहावत है, ‘नंगा नहाये क्या और निचोड़े क्या?’ गरीब किसानो और मज़दूरों की भी ऐसी ही हालत है। कम आय में अपने परिवार का भरण-पोषण करने में काफी दिक्कत होती है। जब उनकी बुनियादी ज़रूरतें ही पूरी नहीं होती तब बेचारे सपने कहां से देखें।

भारत के ग्रामीण क्षेत्रों की सामाजिक ढांचा, जाति-प्रथा और धार्मिक नियम-कानून भी इनके लिए परेशानी का सबब बनते हैं। यह भी समाज के दबे-कुचले लोगों के आर्थिक विकास में एक बड़ी बाधा है। सवर्णों को यह चिंता सताती है कि दबे-कुचले लोग अगर उनसे बराबरी करने लगेंगे तब समाज में उनकी प्रतिष्ठा नहीं रहेगी। अतः इस तरह की सोच ने सवर्णों के मन में एक अलग प्रकार की मानसिकता विकसित कर दिया है।

एक और बड़ी समस्या है ‘बाज़ारवाद’ और ‘पूंजीवाद’ का तेज़ी से बढ़ना। सरकार आर्थिक और सामाजिक असामनता को दूर करने के लिए पंचवर्षीय योजनाओं में काफी तब्दिलियां लाती हैं। कई व्यवसायों को प्रोत्साहित किए जाने के साथ-साथ नए उद्यमियों को ध्यान में रखते हुए योजनाएं भी लाई जाती हैं। सरकार ऐसे उद्यमियों को सब्सिडी भी प्रदान करती है।

मुनाफा के इस बाज़ारवाद में श्रमिक का इस्तेमाल सिर्फ एक मशीन की तरह ही किया जाता है। जिनके पास ज़्यादा आय होती है, उनके लिए बाज़ार से कोई भी महंगी चीज़ खरीदना बड़ी बात नहीं होती लेकिन एक श्रमिक जब बाज़ार जाता है तब अपनी जेब के हिसाब से ही कुछ खरीद पाता है।

किसान

कृषि के क्षेत्र में भी पिछले कई सालों में महंगाई के मुकाबले खेतिहर मज़दूरों की वास्तविक मज़दूरी में गिरावट हुई है। साथ ही धनी किसानों के साथ प्रतियोगिता में ना टिक पाने से अधिकांश छोटा-सीमान्त किसान बर्बाद होकर कर्ज़ के बोझ तले दब रहा है। किसान या तो आत्महत्या कर रहा है या फिर खेती छोड़कर शहरी मज़दूरों की कतारों में शमिल हो रहा है।

लगभग सारे ही खेतिहर मज़दूर और छोटे किसान कर्ज़ में हैं। बड़े किसानों द्वारा लिये गए कर्ज़ बैंकों की कम दरों पर कृषि में विकास हेतु पूंजी निवेश के लिए हैं, जबकि गरीब किसान और मज़दूर ज़्यादातर कर्ज़ सूदखोरों और धनी किसानों से भारी ब्याज दरों पर लेता है। गरीब किसान और मज़दूर द्वारा लिया गया यह कर्ज़ ज़्यादातर किसी बीमारी के इलाज में ही खर्च हो जाता है।

ग्रामीण क्षेत्र में एक गरीब किसान और मज़दूर अक्सर आत्महत्या करने को विवश होता है। हाल के वर्षों में धान, गेहूं, गन्ना, आदि सभी फसलों की बुआई-रोपाई, निराई-गुड़ाई से लेकर कटाई-छिलाई और पेराई में मशीनीकरण की रफ्तार जिस तरह तेज़ हुई है, उससे पूंजी निवेश की ज़रूरत बढ़ेगी और कृषि में श्रमिकों की मांग कम होगी।

कुछ किसान श्रम की कम आवश्यकता तथा ज़्यादा पूंजी निवेश के सहारे अधिक ज़मीन पर कृषि कार्यों में सक्षम होंगे। निवेशक खुद ज़मीन खरीदकर या ज़मीन पट्टे पर लेकर कम लागत और परिमाण की मितव्ययिता से अधिक लाभ कमा पाएंगे। किंतु अधिकांश मज़दूर किसानों का आर्थिक संकट और बढ़ने वाला है। इसके इलावा और भी भाड़ी संख्यां में गरीब मज़दूर और किसान शहरों की तरफ पलायन करेंगे।

इस सम्बन्ध में मुझे यह कहावत बार-बार स्मरण आता है, “मेहनत करे मुर्गा और अंडा खाए फकीर”। यह असमानता पूर्ण व्यवहार सदियों से असंगठित श्रमिक एवं किसान वर्गों के साथ होता आ रहा है। बड़ी मुश्किल से 10 से 15 हज़ार रुपये कमाने वाला किसान वर्ग क्या आर्थिक संपन्न हो पाएगा? आर्थिक रूप से पिछड़े श्रमिक एवं किसान  वर्गों का आर्थिक सशक्तिकरण होना बेहद ज़रूरी है। तभी भारत एक सशक्त देश बन पाएगा।

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