Site icon Youth Ki Awaaz

“उच्च शिक्षित बेरोज़गार सरकार के एजेंडे में क्यों नहीं होते?”

उच्च शिक्षित बेरोज़गार

भारत में तेज़ी से बढ़ रहे हैं उच्च शिक्षित बेरोज़गार

देश में एक वर्ग ऐसा भी है जो उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी शहरों, नगरों या फिर किसी महानगरों में रोज़गार की तलाश में भटक रहा है। ऐसे उच्च डिग्रीधारी लोगों का कोई स्थाई ठिकाना नहीं है और ये अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। रोज़ सुबह एक उम्मीद लिए मैदान में उतरता है और शाम होते ही निराश चेहरे के साथ अपने आशियाने में वापस लौट जाता है।

कभी दिन अच्छा हुआ तो अखबार में कोई विज्ञापन देखने के बाद कोई छोटी-मोटी नौकरी लग जाती है और अगर दिन सही नहीं हआ तो खाली हाथ घर आना पड़ता है। हैरत की बात यह है कि यह वर्ग फिर भी जी रहा है, विवाह कर रहा है, बच्चे पैदा कर रहा है और उन्हें जैसे-तैसे पढ़ा-लिखाकर अपनी-सी स्थिति में खड़ा कर चुप-चाप नया भारत गढ़ रहा है।

मेरे एक साथी ने जब मेरा ध्यान इस ओर आकर्षित किया तब मुझे उच्च शिक्षा प्राप्त बेरोज़गार लोगों की ज़िन्दगी के बारे में सोचने का अवसर प्राप्त हुआ। अब आप कह सकते हैं कि यह वर्ग खुद-ब-खुद कोई काम क्यों नहीं करता? कोई धंधा-पानी ?

हमारे देश की हालत ऐसी हो चली है कि उच्च शिक्षित बेरोज़गारों को कोई प्रॉपर ट्रेनिंग भी नहीं मिलती है जिससे वे सरकारी नौकरी के आगे कुछ सोच भी पाएं। वैसे भी 38-40 की उम्र में उच्च शिक्षित बेरोज़गारों के पास इन चीज़ों के लिए एनर्जी भी नहीं होती है।

देश के तमाम इलाकों में उच्च शिक्षित बेरोज़गारों की बाढ़ है। भरोसा ना हो तो दिल्ली के मुखर्जी नगर, इलाहाबाद के कटड़ा, बनारस के छित्तूपुर-चितईपुर और लखनऊ या पटना के उन क्षेत्रों का सर्वे कर लें, जहां लड़के-लड़कियां एक अदद नौकरी की मुहब्बत में अपनी उम्र कुर्बान कर रहे हैं।

लक्ष्मी नगर, महिपालपुर, मुनिरका और नोएडा के आस-पास के इलाकों में तो ऊंची डिग्रियां लिए लोग कॉल सेन्टर्स और डिलीवरी सर्विसेज़ आदि में दिनभर खटते हैं। इसका मतलब यह तो कतई नहीं है कि इन जगहों पर काम करने वाले लोग मेरी नज़रों में खराब हैं। यहां समझना होगा कि उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी अगर हमें मन मुताबिक नौकरियां ना मिले, फिर तो व्यर्थ ही है।

अगर यह सब बकवास लगे तो दिल्ली विश्वविद्यालय की नाक के नीचे क्रिश्चियन कॉलोनी से होकर आइए, फिर आपको पता लगेगा कि वहां कैसे 5/7 के कमरे में चुल्हा-चौकी जमाए देश का मेधावी युवा वर्ग नाले के किनारे ना जाने किस अनजान साधना में धूनी रमाए जी रहा है।

उनके घर से आने वाला हर फोन उनके लिए सवाल होता है और उनका घर जाने वाला हर फोन माँ-बाप के लिए एक आफत। वे डरते हैं कि कहीं मॉं-बाप फलां परीक्षा के बारे में ना पूछ लें, जो अनिश्चित काल के लिए टल गई या निश्चित कारणों से उनकी जगह किसी और को नियुक्त कर गई।

माँ-बाप की तो बात ही छोड़ दीजिए! फोन पर उनकी आवाज़ सुनने से पहले ही भांप जाते हैं कि बेटे का पैसा खत्म हो गया है। अब कहां से जुगत करें? किसी तरह से मुंह चुराते, दूर होते रिश्ते, अकेलापन और बेरुखी के बीच भी खुश दिखने, सभ्य और शालीन बने रहने की विवशता उन्हें परेशान करती है। यह सब लिखना बहुत आसान है लेकिन अनुभव करना उतना ही मुश्किल है। इच्छाशक्ति, कार्यक्षमता, जीवन-आदर्श सब चूक जाते हैं।

कई बार बचता है जोंक की तरह जिंदगी से चिपका हुआ एक निरर्थक मनुष्य, जिसे खुद के मनुष्य होने पर खुद भी संदेह होने लगता है। ये लोग हमारे देश के एजेंडे में नहीं हैं। इनके लिए कोई जगह ना समाज में और ना ही सरकारों के भावी भारत में है। इनकी बात कौन करेगा?

Exit mobile version