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“योगी जी, शहरों के नाम बदलने में खर्च हुए जनता के पैसों का ब्यौरा भी तो दीजिए”

मुल्क के सियासतदान अपने-अपने राज्यों में शहरों के नाम बदलने में मसरूफ हो रहे हैं, मानो यह विकास का नया फॉर्मूला है। इस फॉर्मूले से शहर की सड़कों, पानी, बिजली और यातायात की तमाम समस्याओं से निजात पाई जा सकती है। इसकी शुरुआत देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश से हुई, जो अब थमने का नाम नहीं ले रही है।

उत्तर प्रदेश में मुगलसराय, इलाहाबाद और फैज़ाबाद के नए नामों के नामकरण के बाद उत्तर प्रदेश में ही आगरा, मुज़फ्फरनगर के साथ ही दूसरे राज्यों-पुणे, शिमला, अहमदाबाद के भी नाम बदलने को लेकर सियासत तेज़ हो रही है।

जिस तरह से शहरों के नाम बदले जा रहे हैं, उसने शेक्सपियर के नाटक रोमियो एंड जूलियट का एक मशहूर संवाद- ‘नाम में क्या रखा है? गुलाब को कुछ भी पुकारो, उसकी सुंदरता और सुगंध वैसी ही रहेगी’, को बहुत पीछे छोड़ दिया है।

ऐसा कतई नहीं है कि शहरों या राजधानी के नाम बदलने के कयास नए हैं पहले भी कई सियासतदान इस तरह की कोशिश करते रहे हैं। पहले शहरों के नाम बदलने का तर्क यह था कि शहरों के नाम औपनिवेशिक दासता का एहसास कराते हैं इसलिए बंबई-मुबंई, मद्रास-चेन्नई, कलकत्ता-कोलकत्ता हो गया।

अब मुस्लिम शासकों द्वारा बसाए गए शहरों को किया जा रहा है टारगेट

मौजूदा शहरों के नाम बदलने के कयास में महत्त्वपूर्ण बात यह दिख रही है कि उन शहरों के नाम बदले जा रहे हैं जिन शहरों को मुस्लिम शासकों ने बसाया था और नाम बदलने के पीछे इतिहास की जो व्याख्या रखने की कोशिश है वह दोयम दर्जे की है।

तर्क का एक बिंदु यह है कि तमाम मुस्लिम शासकों ने जिन शहरों को बसाया और उनके नामों का नामकरण किया उन्होंने रहवासियों का दमन किया या पुराने नामों को बदलकर नया नाम थोप दिया। उन्होंने जिन शहरों का नामकरण किया वे मुस्लिम शासकों के दमन की याद दिलाते हैं।

वैसे मौजूदा सियासतदान शहरों के नाम बदलने के तर्क स्थिर भी नहीं रख रहे हैं, वह वक्त-बे-वक्त बदलते जा रहे हैं। इनमें नया तर्क यह भी शामिल हो गया है कि जनता में ही शहरों और राजधानियों के नाम बदलने का नया जोश पैदा हो गया है, जिसे नया पुनर्जागरण कहा जा रहा है।

इन सबके मूल में यह बात छुपी हुई है कि मौजूदा सियासतदान अपनी असफलता को छिपाने के लिए समुदाय के मध्य ध्रुवीकरण की राजनीति से सामासिक संस्कृति को ज़मींदोज करने की कोशिश कर रहे हैं।

शहरों के नाम बदलने में होने वाले खर्चों का ब्यौरा क्यों नहीं देती सरकार

चूंकि शहरों और राजधानियों के नाम बदलने की सियासत मौजूदा दौर में विकास हो गई है, इसलिए ज़रूरत इस बात की है कि तमाम सियासतदान शहरों या राजधानियों के नाम बदलने में हो रहे सरकारी खर्च का भी ब्यौरा दें।

एक ज़िले में 70 से 90 तक सरकारी डिपार्टमेंट्स होते हैं। सूचना मिलते ही इन सभी विभागों के चालू दस्तावेज़ों में नाम बदलने का काम शुरू हो जाता है। सभी सरकारी बोर्डों पर नया नाम लिखवाया जाता है। सरकारी-गैर सरकारी संस्थानों को अपने साइन बोर्ड्स बदलवाने पड़ते हैं। ज़िले में स्थित सभी बैंक, थाने, बस अड्डे, स्कूलों-कॉलेजों को अपनी स्टेशनरी व बोर्ड में लिखे पते पर ज़िले का नाम बदलना पड़ता है। पुरानी स्टेशनरी और मोहरें बेकार हो जाती हैं।

राज्य सचिवालय को भी उस ज़िले के बारे में अपने रिकॉर्ड्स बदलने पड़ते हैं। केंद्र सरकार, रेलवे और चुनाव आयोग को सूचना भेजनी होती है। यदि कोई ज़िला या शहर अंतरराष्ट्रीय नक्शे पर हो, तब तो और मुश्किलें आती हैं, इसकी अपनी जटिलताएं हैं। कुल मिलाकर इस पूरी प्रक्रिया में उसी तरह से धन और श्रम खर्च होते हैं।

कमोबेश हर सियासतदान शहरों और राज्यों के नाम बदलने में हो रहे सियासी खर्चे को छुपा ले जाते हैं और जनता के पैसे का कोई हिसाब जनता को नहीं देते हैं।

तर्क यह दिया जाता है कि जनता में नया तरह का पुर्नजागरण हो रहा है और जनता ही चाहती है कि शहरों और राज्यों के नाम बदले जाएं। लोगों को लगता है कि चलो इनको अपना शौक पूरा कर लेने दो, इससे हमें क्या नुकसान है?

आम जनता को यह समझना ज़रूरी है कि सरकार केवल मदारी है, उसे पैसे कमाने से मतलब है, वह ऐसा खेल ही दिखायेगी जिससे जनता पैसे के साथ-साथ ताली भी बजाय और अबोध जनता वही कर रही है। तालियों की गड़गड़ाहट में बेरोज़गारी, शिक्षा, स्वास्थ्य के मूलभूत सवालों को भुलाने की कोशिश हो रही है।

समझ में नहीं आ रहा शहरों के नाम बदलकर विकास की कौन-सी नई इबारत लिखी जा रही है। चूंकि नाम बदलने की सियासत को लेकर दक्षिण के पूर्व मुख्यमंत्री एम.करुणानिधि को शानदार राजनीतिक सफलता मिली थी, इसलिए शहरों के नाम बदलने की सियासत को राजनीतिक सफलता का सफल-सूत्र मान लिया गया है।

कभी इतिहास, कभी परंपरा तो कभी स्थानीय लोगों की भावनाओं की आड़ में और कभी महज़ राजनीतिक लाभ के लिए ही नए सिरे से नामकरण की कवायद होती रही है। इसका इस्तेमाल आगे भी राजनीति में किया जाता रहेगा। शहरों के नाम बदलने की सारी सियासत जनता के कंधे पर बंदूक चढ़ाकर की जाती है इसलिए इसका विरोध होना चाहिए क्योंकि यह जनता के पैसे का बेजा इस्तेमाल है और कुछ नहीं।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि शहरों के नाम बदलने से पूर्व शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने का वादा सरकारें अब तक नहीं कर सकी हैं। शहरों को स्मार्ट सिटी बनाने का वादा जुमलों और कागज़ी खर्च के अलावा कुछ नहीं है और अब नाम बदलने की राजनीति में जनता को सिर्फ तमाशबीन ताली बजाने के लिए कहा जा रहा है।

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