भारत में किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने के नाम पर देश की राजनीतिक पार्टियां राजनीति करने बजाय कुछ नहीं करती हैं। चुनावी मुद्दों में जब भी किसानों की माली हालत सुधारने की बात की जाती है तो नेता कर्ज़माफी करने की घोषणा कर देते हैं लेकिन कर्ज़माफी से किसानों की हालत सुधरती नहीं बल्कि अर्थव्यवस्था पर भार अधिक बढ़ जाता है।
भारत में पिछले कुछ वर्षों में जितने भी चुनाव हुए उनमें कर्ज़माफी अहम मुद्दा रहा है। लगभग सभी राजनैतिक पार्टियों ने अपने मेनिफेस्टो में कर्ज़माफी की घोषणा की है। चाहे वह उत्तर प्रदेश का चुनाव हो या फिर कर्नाटक या छत्तीसगढ़ का सभी जगह किसानों को लुभाया गया है।
भारत एक कृषि प्रधान देश है। भारतीय किसान खेतों में मेहनत करके देश की जनता का पेट भरते हैं लेकिन इन्हीं किसानों को दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती है। नेता कर्ज़माफी तो कर देते हैं लेकिन किसानी के लिए मूलभूत सुविधाओं को उपलब्ध नहीं कराते हैं।
आज भी देश के कई ऐसे इलाके हैं जहां पर सिंचाई की व्यवस्था नहीं होने के कारण किसानों की फसलें सूख जाती हैं और उनकी लागत भी नहीं मिल पाती है। जिसके कारण किसान कर्ज़ में डूब जाता है और वह आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है।
देश को आज़ाद हुए सात दशक हो गए हैं लेकिन किसान खेती करने के लिए आज भी वर्षा जल पर निर्भर हैं। भारत में किसानों से संबंधित जितनी भी ज़िम्मेदार संस्थाएं हैं वे अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं कर रही हैं। संस्थाओं द्वारा किसानों को ना तो समय पर उर्वरक मिल पाता है ना ही जागरूक करने के लिए कोई कार्यक्रम चलाया जाता है। इसका नतीजा है कि आज भी किसान पुरानी पद्धती पर ही काम कर रहे हैं।
अगर किसानों को जागरूक कर दिया जाए तो उनकी हालत में सुधार हो सकते हैं, क्योंकि भारत में अधिकतर किसानों की जोत का आकार छोटा है, उन्हें खेती करने के लिए अधिक लागत लगानी पड़ती है। अगर छोटे किसानों को बागवानी या नगदी फसलों के उत्पादन के लिए प्रेरित किया जाए तो उनकी माली हालत सुधर सकती है।
दूसरी बात यह है कि जहां पर सिंचाई के पर्याप्त साधन नहीं उपलब्ध हैं वहां पर किसानों को कम पानी वाली फसलें जैसे-अरहर की दाल, मसूर की दाल आदि के उत्पादन के लिए ज़ोर देना चाहिए क्योंकि इन फसलों में पानी की लागत कम होती हैं और बाज़ार में इनकी कीमत भी अच्छी होती है।