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“दिहाड़ी मज़दूरों की तरफ सरकार का ध्यान क्यों नहीं जाता?”

मज़दूर

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हाल ही में टपरी पर बैठकर चाय की चुस्कियों के बीच मैं अखबार पढ़ रहा था। इस दौरान एक शख्स आकर मुझसे अखबार मांगकर ले गया। अखबार पढ़ने का शौकीन होने के नाते मुझे खाली-खाली सा लगने लगा लेकिन इसी बीच आस-पास बैठे लोगों को ऑबज़र्व करने लगा। मेरे सामने दिहाड़ी पर काम करने वाले दो मज़दूर बैठे थे। जब मैंने उनकी आंखों की तरफ देखा तब मुझे उनकी आंखे अंदर तक धंसी हुई दिखाई पड़ी। फटे कपड़े से बदन ढककर दोनों मज़दूर चाय पी रहे थे। इस दौरान उन्होंने अपनी मैली सी पैंट की जेब में हाथ डालकर दो बीड़ी निकाली।

वे दोनों हर तरह से परेशान नज़र आ रहे थे। उम्र ज़्यादा नज़र नहीं आ रही थी फिर भी पूरा चेहरा झुर्रियों से भरा था। हताश आंखें सुकून की तलाश में थीं। वे एक दूसरे से भी कम ही बात कर रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे अपनी सारी परेशानियां धुंए के साथ भूलने की कोशिश कर रहे थे। मेरी चाय अब खत्म हो चुकी थी और मैं यह सोच रहा था कि क्या ये लोग अपनी ज़िन्दगी से खुश हैं? उनको देखने के बाद एक पल के लिए मेरी सारी परेशानियां दब गईं।

मैं फिलहाल अपना ध्यान उनकी परेशानियों में लगाना चाहता था। फिर ख्याल आया कि शायद सरकारें कहीं ना कहीं दिहाड़ी पर काम करने वाले मज़दूरों के विकास के लिए कुछ ठोस कदम नहीं उठा पाई हैं। समाज भी कितना अजीब है ना! जहां इनकी भूमिका को हर वक्त नज़रअंदाज़ किया जाता है।

मेरे ज़हन में यह सवाल उबलने लगा कि क्या वाकई में सरकारें इनकी परेशानियों को कम करने के लिए कोई सकारात्मक पहल कर रही हैं? इसी बीच एक ने जब अपनी जेब में हाथ डाला तब उसके पास पैसे नहीं थे और उसने दूसरे से चाय के पैसे मांगे। दूसरे ने पैसे देते हुए यह कहा कि मेरे पैसे जल्द लौटा देना। ज़रा सोचिए कि उनका परिवार कैसे चलता होगा? इनके बच्चे कैसे पढ़ते होंगे?

यह सब देखने के बाद मैं अच्छा महसूस नहीं कर रहा था। इसी बीच एक और कप चाय पीने के दौरान एक मज़दूर ने दूसरे से कहा कि बीजेपी राम मंदिर कब बनवाएगी? यह सुनते ही मैं उठकर चला गया।

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