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“आज मैं एक ज़िम्मेदार आस्तिक मुसलमान होने के नाते शर्मसार हूं”

आज मैं एक ज़िम्मेदार आस्तिक मुसलमान होने के नाते शर्मसार हूं, मेरा दिल बैठा जा रहा है और मुझे डर लग रहा है। मैं खुद से नज़रे भी नहीं मिला पा रहा हूं,क्योंकि मैं एक ऐसे समाज का हिस्सा हूं जहा इंसानों ने इंसानियत तक को शर्मसार कर दिया है और मुझे शर्म आनी भी चाहिए। क्योंकि मैंने बचपन से जो इस्लाम पढ़ा या फिर आज तक जो इस्लाम पढ़ा उसमें ऐसा कही नहीं लिखा गया जैसा आज के मुसलमान कर रहे हैं।

उसमें तो कहीं नफरत शब्द ही नहीं था जितनी आज के मुसलमान करते हैं, उसमें तो वो शिक्षाएं ही नहीं थी जो आज लोग कर रहे हैं।
दरअसल घटना यूं हुई कि उदयपुर शहर में एक मुस्लिम व्यक्ति की मृत्यु हो गई, जिसकी मृत्यु के बाद उसके परिवार वालों को धमकी भरे फोन आने लगें तथाकथित सुन्नी (बरेलवी) लोगों की तरफ से कि आप इस मय्यत (शव) को उदयपुर के किसी कब्रिस्तान में दफ़्न नहीं कर सकते क्योंकि उदयपुर के कब्रिस्तान सुन्नियों के हैं। यूं कहें बरेलवी मसलक के हैं, और जिसकी मृत्यु हुई वो देवबंदी है।

शर्म आनी चाहिए उन तथाकथित मुसलमानों को जो एक इंसान को 2 गज ज़मीन का टुकड़ा मुहैय्या ना करवा सकें। 2 गज ज़मीन की अपने शहर में क्या अहमियत होती है वो भारत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह ज़फर ने यूं बताई,

कितना है बदनसीब ‘ज़फर’ दफ्न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में।

और यह उदयपुर शहर की कोई पहली घटना नहीं है, एक बार पहले भी 9 फरवरी 2016 को उदयपुर के लोगों ने एक दफ्न की हुई मय्यत को कब्र से निकाल कर अगले दिन उसके घर के बाहर छोड़ दिया और फिर बड़ी शान से इस बात का प्रचार किया गया जैसे आज भी कर रहे हैं कि हमने एक देवबंदी को अपनी कब्रिस्तान में दफ्न नहीं होने दिया।

इस घटना के बाद फिर 30 अगस्त 2017 को राजस्थान हाई कोर्ट ने आदेश दिया कि किसी भी फिरके के मुसलमान को कब्रिस्तान में दफनाने से मस्जिद में नमाज़ पढ़ने से नहीं रोका जा सकेगा और कोर्ट ने कलेक्टर और एसपी को आदेश की पालना करवाने के लिए कहा।

अब समझते है देवबंदी और बरेलवी क्या होते हैं! मोटे तौर पर दो तरह के मुसलमान होते हैं जो सब जानते हैं-
1.सुन्नी
2.शिया

फिर सुन्नी में 4 इमाम (व्याख्याता) जिन्होंने इस्लाम के कानूनों का निर्वाचन किया उनके मानने वाले हैं उनमे से ही एक इमाम थे जिनका नाम था इमाम अबु हनीफा जिनको मानने वाले मुसलमान भारत-पाक-बांग्लादेश और अफगानिस्तान या यूं समझ लीजिये अखंड भारत में रहते हैं
इन इमाम साहब को मानने वाले फिर दो तरह के हैं-

1. देवबंदी
2. बरेलवी

ये दोनों नाम उत्तरप्रदेश के दो शहरों के नाम हैं जहां दो अलग-अलग इस्लामिक स्कूल बने हुए हैं और उन दोनों स्कूलों की मान्यताओं में ज़रा सा फर्क है। 

अब बात यह है कि देवबंदी और बरेलवियों की शाखा जो इस्लाम में है लगभग आखिर तक साथ चलती है यानी कि मान्यताओ में फर्क बहुत कम है तो इन दोनों के बीच इतनी नफरत कैसे है?

इंसान की एक फितरत है वो अपने धर्म देश भाषा संस्कृति से तब तक ज़्यादा प्यार नहीं करेगा तब तक कि वो सामने वाले से नफरत ज़ाहिर ना करे जैसे हिंदी से प्यार मतलब अंग्रेज़ी से नफरत, भारत से प्यार मतलब पाकिस्तान से नफरत, संस्कृत से प्यार मतलब उर्दू से नफरत ऐसे ही देवबन्दियत से प्यार मतलब बरेलवियत से नफरत या इसका उल्टा करलो दोनों सही हैं। तो यह पैटर्न है जो कि वो लोग अच्छे से समझ चुके हैं जो समाज में फितने फैलाते हैं।

इन दोनों पंथों में नफरत बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ मौलानाओं का है, वो चीख-चीखकर सामने वाले पंथ को गाली देता है और आने वाले इनाम को देख-देखकर खुश होता है। उसे अपनी गद्दी बचाने का डर भी रहता है कि कहीं उसके फिरके को मानने वाले दूसरे फिरके को मानने लग गएं तो उसका धंधा तो ठप हो जाएगा। धर्म से बड़ा तो आज कोई धंधा है ही नहीं, खैर उनकी भी मजबूरी है अपने घर परिवार चलाने के लिए महंगी होटलों में ठहरने के लिए या फ्लाइट की टिकट के लिए तो पैसों की ज़रूरत होती ही है। शांति से बिना किसी को गाली दिए भाषण दे देंगे तो उन्हें पैसे कौन देगा?

आज जब आमतौर पर मुसलमान गुरबत की ज़िन्दगी जीता है वहीं लगभग हर छोटे-बड़े शहर में लाखों रुपये खर्च करके बड़े-बड़े नामी मौलानाओं को बुलाया जाता है सिर्फ इसलिए कि फिरकों के बीच जो नफरत है उसको ज़िंदा रखा जा सके। चाहे तो वो लोग गरीब बच्चों की शिक्षा पर भी खर्च कर सकते हैं पर वो उन्हें आगे नहीं बढ़ने दे सकते क्योंकि कल पढ़-लिखकर वही बच्चा उनसे सवाल करेगा, सही गलत की बात करेगा और धर्म के ठेकेदारों को अपनी तरफ उठती हुई उंगलियां पसंद नहीं है। अंत में मैं बस अल्लामा इकबाल का एक शेर अपने शब्दों में कहना चाहूंगा-

“ना समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिंदी मुसलमानों।
दास्तां भी नहीं होगी तुम्हारी, दास्तानों में।।

सिर्फ एक बार सोचिये आप आने वाली पीढ़ी के लिए कैसा समाज छोड़कर जा रहे हैं।

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