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“क्या इस देश का युवा सच में मंदिर मस्जिद के लिए सड़क पर है?”

वर्तमान समय चुनावी समय है। राजस्थान, तेलंगाना में चुनावी माहौल गर्म है। विभिन्न पार्टियों ने सत्ता में आने के लिए चुनावी घोषणाओं की झड़ी लगा दी है। इस बीच कई लोग आरोप प्रत्यारोप करते नज़र आ रहे हैं।

क्या देश के विकास के लिए धर्म व जाति की राजनीति आवश्यक है? क्यों चुनावी जुमलों में धर्म को लेकर भाषण दिये जाते हैं। हद तो तब हो जाती है जब देश का पढ़ा-लिखा युवा भी यह नहीं समझ पाता कि क्या इस प्रकार की राजनीति की उसको वास्तव में आवश्यकता है।

मुझे नहीं लगता कि अयोध्या में मंदिर की आवश्यकता है और ना ही मस्जिद की। भगवान व आस्था को आज एक राजनैतिक मुद्दा बना दिया है, जिससे लोग भारी मात्रा में भीड़ जुटाकर रोड़ जाम करते हुए दिख जाते हैं।

फोटो प्रतीकात्मक है।

किसी को यह क्यों नहीं दिखता कि यह युवा रोड पर क्यों है? क्या यह सच में मंदिर मस्जिद के लिये ही वह रोड पर है? नहीं, यह सत्य नहीं है, सत्य तो यह है कि इस युवा के पास रोज़गार नहीं है। नहीं तो कोई युवा अपने काम को छोड़कर इन व्यर्थ कार्यों में नहीं पड़ेगा। उसे भीड़ के रूप में इकट्ठा किया जा सकता है तो उसे उकसा कर उससे आपराधिक घटना को अंजाम दिलाने के लिये बड़े ही आराम से तैयार किया जा सकता है।

योगी जी द्वारा हनुमान को दलित और ओबेसी को हैदराबाद छोड़ने वाली और हैदराबाद का नाम बदलकर भाग्यनगर करने वाली बात किस ओर इशारा करती है? हालांकि, जनवरी 2018 में इंदौर उच्च न्यायालय ने कहा था कि दलित शब्द का कोई सरकारी तथा निजी संस्था प्रयोग नहीं कर सकता, क्योंकि इस असंवैधानिक शब्द पर संविधान की फिक्र है ही नहीं किसी को।

योगी आदित्यनाथ

फिक्र तो इस बात की है कि वोट कैसे बटोरे जायें? यह बात मान सकते हैं कि मुस्लिम शासन काल में शहरों के नाम बदले गये लेकिन उस समय राजव्यवस्था थी। आज लोकतंत्र है, कब तक इतिहास को दोहराओगे? यह लोकतंत्र की हत्या है और इतिहास सबसे बड़ी सीख यही देता है कि इतिहास में की गई गलतियां ना दोहराइ जाएं।

आज के संदर्भ में यह देश की व्यवस्था को बिगाड़ सकता है। हिन्दु मुस्लिम समुदाय में एक दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना का विकास हो सकता है। लोगों के बीच नफरत पैदा हो सकती है। देश में पिछले कुछ दिनों मैंने समाचार पत्र में पढ़ा था कि एक विश्वविद्यालय की कुछ छात्राएं रक्तदान करने ब्लडबैंक पहुंची, तो वहां पर स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा उनका स्वास्थ्य परीक्षण किया गया तो अधिकतर छात्राओं का वजन निर्धारित से कम था।

तो क्या जिन महापुरुषों की मूर्तियां बनाकर राजनैतिक पार्टियां वाहवाही बटोरना चाहती हैं क्या वह सही है। क्या यह महापुरुष भी यही चाहते हैं कि इन सब प्राथमिक विकास के मुद्दों को छोड़कर उनकी विशाल प्रतिमा बनाई जाये।

एक व्यक्ति खून पसीने और दिन रात की मेहनत से कमाये पैसे से टैक्स देता तो वह उम्मीद करता है कि उसके बदले कुछ सुविधाएं मुहैया कराई जायेंगी लेकिन उस धन को मूर्ति, शहरों के नाम बदलने, इत्यादि में बर्बाद किया जा रहा है।

आज किसी सरकारी अस्पताल में जाकर देखा जाये तो वहां डॉक्टर के समय पर आने की तो बात दूर, मरीज़ों के लिये प्रॉपर बेड तथा साफ सुथरी चादर और कंबल भी नहीं हैं। कोई मॉनिटरिंग नहीं क्योंकि राजनेता तो दिन रात चुनावी सभाओं में व्यस्त हैं।

मैंने कभी किसी राजनेता को अस्पताल, विद्यालय में नहीं देखा लेकिन दंगे, जुलूस, सभाओं में ये ज़रूर मिलेंगे। उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा वर्तमान में संविधान की प्रस्तावना में वर्णित शब्द पंथनिरपेक्षता (सेक्युलर) की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।

सेक्युलर का अर्थ यह होता है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होता है। जबकि उत्तर प्रदेश मुख्यमंत्री जी का धर्म किसी को बताने की ज़रूरत नहीं है। उनकी कार्यशैली देखकर तो साफ प्रतीत होता है कि एक महंत के मुख्यमंत्री बनने की मंशा क्या है।

इस देश की अवस्था तब और खराब हो जाती है जब लोकतंत्र का चौथा स्तंभ मीडिया अपनी टीवी डिबेट के दौरान अपने मुद्दों में हिंदु-मुस्लिम, लव-जिहाद, सवर्ण-दलित जैसे मुद्दों को अपनी टीआरपी बूस्टर के रूप में प्रयोग करते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़क, परिवहन, भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर तो कभी इनकी डिबेट होती ही नहीं। ये इनके लिये बेकार की बाते हैं।

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