गुज़रते हुए साल में देश में #MeToo हुआ, दिल्ली में गैंगरेप हुआ, कश्मीर में भी हुआ, कठुआ में भी हुआ, हरियाणा में भी हुआ, झारखंड में भी हुआ, चेन्नई में भी हुआ, तो दोस्तों गैंगरेप तो कश्मीर से कन्याकुमारी तक हुआ। और इसी बीच 16 दिसंबर आ गया, 6 वर्ष पहले की वही काली रात जब निर्भया का सामना इस देश की क्रूरता से हुआ। हर बार की तरह इस बार भी पोस्ट लिखने जा रहा हूं और बड़ी बड़ी बातें और डींगें छोड़ समझ लीजिए कि निर्भया आज ज़िंदा नहीं है, अगर होती तो शायद ये सब देख और दुःखी हो जाती।खैर, अगर कुछ ज़िंदा है तो वो है बुराई जिसके कारण निर्भया की मौत हुई।
अगर निर्भया मरना नहीं चाहती थी तो मरना 9 साल की कठुआ की बच्ची भी नहीं चाहती थी। अरे! माफ कीजियेगा, एक बार को रुकते हैं, सबसे जरूरी थोड़ा हिन्दू मुस्लिम करते हैं, फिर पता करते हैं कि बच्ची के पक्ष में किए आंदोलन का पैसा किसकी जेब में गया- शेहला राशिद या एडवोकेट दीपिका सिंह रजावत के पर्स में। खैर गैंगरेप की जांच सीबीआई से करवाई जाए तो रेप की गैरजरूरी जांच से जुदा सबसे जरूरी चीज साबित हो जाएगी कि सब हिन्दू बेकसूर हैं – जिन पर बलात्कार के आरोप हैं और साथ ही बार एसोसिएशन के वो हिन्दू वकील भी जो खुलेआम पुलिस जांच और कोर्ट ट्रायल के खिलाफ नारे लगा रहे थे।
मोमबत्ती जलाई थी ना निर्भया के लिए, जो उसके साथ हुआ वो किसी और के साथ ना होने देने की कसम भी खाई थी ना। तो क्यों तनुश्री दत्ता के नाना पाटेकर के खिलाफ लगाए सेक्शुअल हैरसमेंट के आरोपों में हर एक लड़की को अपनी बेबसी नज़र आयी? क्यों 6 साल मोमबत्तियां जलाने के बाद दिल्ली, मुंबई और पूरे देश की लड़कियों ने ट्विटर को अपनी मार्मिक कहानियों से झकझोर दिया? क्यों प्लेटफॉर्म को इस कदर ज़हरीला कर दिया मानो ये सोशल मीडिया साइट ना होकर 1985 के भोपाल गैस सा कारखाना हो या हिटलर के जर्मनी सा कन्सन्ट्रेशन कैंप हो? वो लड़कियां सुना जाना चाहती थी, जिनकी सिसकियां, चीखें और दर्द उसके सिरहाने और दिल में ही कई सालों से छुपे हुए थे। उन कष्टदाई पलों को जीतना ज़रूरी था, विशेष कर तब जब लोग इसे पब्लिसिटी स्टंट की संज्ञा देकर पुरस्कृत कर रहे थे। खैर, क्या मायने रखता है लड़कियों के साथ तो होता ही रहता है ऐसा, आदत हैं उन्हें तो, हम तो मोमबत्ती जलाएंगे इस बार भी।
निर्भया के कात़िल को लगता है कि जो हुआ कुछ अलग नहीं हुआ, अगर गलती हमारी थी तो गलती उसकी भी थी, क्योंकि “ऐसी” लड़कियां जो लड़के दोस्त के साथ घूमती हैं रात 9 बजे तक, फिल्म देखती हैं, उनके साथ ऐसा हो ही जाता है। जो पुरुष हैश टैग लिए फिरते हैं – #MenToo, #NotAllMen और भी न जाने क्या कुछ, मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि आपके लिए इतना मुश्किल क्यों हो रहा किसी भी निर्णय तक पहुंचना? आपकी सोच आपको लैंगिक न्याय के किस ओर खड़ा कर रही है – निर्भया की तरफ या उन दरिंदों की तरफ जिन्होंने निर्भया की बेहद अमानवीय ढंग से उसकी जान भी ले ली। यहां से विकल्प बड़ा आसान लगता है पर आखिर चीज़ें इतनी जटिल क्यों हैं?
क्या लैंगिक न्यायसंगत समाज किसी के अधिकारों का हनन करता है या यहां किसी की अपनी मनमाफ़िक सुविधाओं या प्रिविलेज को ख़तरा है। लेकिन कैसी प्रिविलेज? महिलाओं से संबंधित गाली देने का विशेषाधिकार? लड़कियों की हर छोटी बड़ी चीज पर भद्दे कॉमेंट करने का अधिकार? या उसे अपने सपने छोड़कर ताउम्र बच्चे पैदा करने की मशीन बनाने से घर का काम करने वाली बाई बना देने का विशेषाधिकार? अरे मां कहते हो ना उसे, महिमामंडन (ग्लोरीफाई) किया जाता है, शायद उसे बहलाया जाता है, भावनाओं के खेल खिलाए जाते है, कि कहीं वो प्रश्न ना पूछ ले, पितृसत्ता को कटघरे में खड़ा ना कर दे। और, जब माँ प्रश्न पूछ ले, उन्ही माताओं को हमने पिटते भी देखा है।
आप तालियां बजाइए, मोमबत्तियां जलाइए।
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surendra kumar panwar
बेहतरीन आलेख …………इस देश मे जब औरत, स्त्री ,मां , बेटी ,बहन एवं महिला को # इंसान समझने लगेंगे उस दिन एक बेहतर समाज की उम्मीद कर सकते है l