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‘किसान’ एक चुनावी मुद्दा

भारत सदियों से अपने ज्ञान , विज्ञान और नैतिकता के बल पर विश्व में अपनी अच्छी पकड़ बनाया हुआ है । लेकिन इस बात को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता की आजादी के बाद या पहले से भारत एक कृषि प्रधान राष्ट्र है । और हम उसी देश के निवासी हैं जहां किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हैं । लेकिन चुनाव जैसे ही नजदीक आता है ,देश के किसान एक बढ़ा मुद्दा बन जाते है । उनको बेहलाने- फुसलाने का काम जोरो-शोरो से शुरु हो जाता है । शायद नेताओं का मानना है , कर्ज माफी और डबल बोनस ही किसानों को लगी गोलीयों पर मरहम पट्टी का काम कर देगा । तभी तो आज तक कितनी सरकारें बदली , पर किसानों का भाग्य नहीं बदला ।

देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हुआ है , मध्यप्रदेश में किसानों कि अहम भूमिका रही है । जहां कोंग्रेस की कर्ज माफी का एलान जब भाजपा को उनका सर दर्द प्रतीत हुआ, तो उन्होंने भी लंबी छलांग मारने कि सोची और दृष्टि पत्र की घोषणा कर ढाली ।अब इनकी छलांग मुख्यमंत्री की कुर्सी तक कि है या नहीं यह कहना उतना ही मुश्किल है ,जितना किसानों के लिए इनकी पॉलिसी समझना । खैर जैसी कथनी वैसी करनी न होते हुए भी किसान इस या उस राजनीतिक दल पर भरोसा कर ही लेता है ।

इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि आज तक किसी भी पार्टी ने किसानों के हित के लिए कोई संकल्प किया हो , चाहे वो सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा हो या विपक्षी पार्टियां हो अगर किसी भी दल ने ऐसा कुछ किया होता तो शायद आज कर्ज माफी या दृष्टि पत्र की आवश्यकता ही नहीं होती । बस ऐसा लगता है राजनीतिक दल किसानों के कंधों के सहारे अपना झंडा गाड़ना चाहते हैं । वास्तव में इन नेताओं को किसानों की तकलीफों से कोई मतलब नहीं है , अगर होता तो हर किसान का बच्चा इंजीनियर , डॉक्टर बनने से पहले एक किसान बनने का जरुर सोचता ।

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