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धनबल और बाहुबल के खिलाफ विकल्पों की तलाश में जनता

पाँच राज्यों में चुनाव और चार राज्यों में सत्ता परिवर्तन। लोकतांत्रिक व्यवस्था की सबसे बड़ी खूबसूरती इन चुनाव परिणामों में देखने को मिली। एक समय, जब कुछ लोग डर रहे थे कि विचारधारा विशेष को मानने वाली पार्टी पूरे भारत को अपनी विचारधारा में रंग देगी; राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ का जनमत आया। इस जनमत ने भारतीय जनता पार्टी को राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सिरे से खारिज कर दिया और मध्य प्रदेश में काँटे के मुकाबले में इसे पीछे रखा। इससे भी अधिक खूबसूरत तथ्य ये कि छत्तीसगढ़ के अलावा अन्य दोनों राज्यों में कांग्रेस को स्पष्ट आदेश नहीं मिले। अभिप्राय साफ है – अपेक्षाओं पर पूरी तरह खरे आप भी नहीं उतरते पर अगर फ्रेम ऑफ रेफरेंस बीजेपी है तो हम आपको चुन रहे हैं।

लोगों की उम्मीद

इन परिणामों ने कुछ सवालों को भी जन्म दिया है जैसे आखिर क्यों जनता स्पष्ट बहुमत नहीं दे पा रही? जनता की अपेक्षाएँ हैं क्या? इसे समझना उतना मुश्किल है नहीं जितना राजनैतिक पार्टियों के लोगों ने बना दिया है। जनता, सड़क, पानी, बिजली, शिक्षा, स्वास्थ्य की आधारभूत सुविधाओं के साथ आधुनिक समाज के हितकर विचार वाले नेताओं की चाहत रखती है। जनता का एक समूह एक ऐसी सरकार चाहता है जो मुद्दों का हल निकाले न कि उसे लटकाए रखे। दूसरा वर्ग एक ऐसी सरकार चाहता है जो राम और हनुमान को मंदिरों में रहने दे और राजनैतिक मैदानों पर केवल जनसुविधाओं और देशहित की बात करे। इसके अलावा वोटर्स का एक तबका ऐसा भी है जो उन नेताओं की चाहत रखती है जिनसे उसकी निजी ज़रूरतें पूरी हो सके।

लोगों की ज़रूरतों से ऊपर अपना वोटबैंक

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही जनता की इस साधारण सी अपेक्षा पर खरी नहीं उतर पाईं। दोनों वोटबैंक की राजनीति के लिए समाज को तोड़ने का प्रयत्न करते रहते हैं। कोई हनुमान वालों को अपनी तरफ खींचता है तो कोई शिव वालों को। कोई टोपी की बात करता है तो कोई टीके की। आम लोगों के हालातों को समझने के लिए उनके पास जाने की बज़ाय दोनो पार्टियों के नेता मंदिर में घूमते हैं।

क्यों बढ़ रहे हैं NOTA के वोट

छत्तीसगढ़ में नोटा को 2.0 प्रतिशत वोटशेयर मिला है। राजस्थान में 1.4 और मध्य प्रदेश में 1.3 प्रतिशत। ये राजनेताओं के प्रति लोगों की गिरती हुई आस्था का प्रतिमान है। इन तीन राज्यों में लगभग 13 लाख लोगों ने नोटा को अपना मत दिया है। ये वो लोग हैं जो मतदान केंद्र तक गए, मत दिया लेकिन किसी नेता का चुनाव नहीं किया। इन लोगों की आस्था संविधान और लोकतंत्र में कम से कम उन लोगों से ज्यादा है जो अपने घरों से निकलते ही नहीं या फिर उम्मीदवारों के साथ समझौता कर लेते हैं। नोटा को मिला वोट शेयर और अस्पष्ट जनादेश इस बात का सबूत है कि आम लोग उम्मीदवारों का विश्लेषण कर रहे हैं।

बाहुबल और धनबल का खेल

इसके अतिरिक्त, अगर आँकड़ों की ओर देखें तो जिस पार्टी ने गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि के अधिक उम्मीदवारों को टिकट बाँटा, उसे अधिक सीटें हासिल हुई। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने ऐसे 17 फीसदी उम्मीदवारों को टिकट बाँटा। बीजेपी का एक भी उम्मीदवार गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि का नहीं था। मध्य प्रदेश में कांग्रेस के 27 फीसदी और बीजेपी के 14 फीसदी उम्मीदवार गंभीर आपराधिक पृष्ठभूमि से संबध रखते थे। राजस्थान में बीजेपी और कांग्रेस के लिए ये आँकड़ा 14 फीसदी और 11 फीसदी का था। तीनों राज्यों में सीटों का अंतर सीरियस क्रिमिनल बैकग्राउंड के उम्मीदवारों की संख्या के अनुरूप ही है।

आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों में कांग्रेस के 76, 55.81 और 51.89 फीसदी क्रमशः छत्तीसगढ़, राजस्थान और मप्र में सफल हुए। बीजेपी के लिए यही आँकड़ा 50, 33.33 और 49.21 फ़ीसदी का रहा।

बीजेपी ने तीनों राज्यों में कांग्रेस की तुलना में अधिक करोड़पति उम्मीदवारों को टिकट बाँटा है। बीजेपी ने मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में क्रमशः 81, 81 और 82 फीसदी करोड़पतियों को टिकट वितरित किया जबकि कांग्रेस ने 78, 77 और 73 फीसदी।

सत्ता निर्धारण के पैमाने

कांग्रेस के पास बाहुबल अधिक था और बीजेपी के पास धनबल। साफ है चुनाव का निर्धारण उन तबकों ने किया जो या तो निजी हितों से अलग समाज कल्याण, विकास और असल मुद्दों को तरज़ीह देते थे या तो उन वर्गों ने जो शोषित हैं और जिनकी आस्था अब तक सरकारों में ही है। यही वे कारण थे जिन्होंने कांग्रेस को जिताया और बीजेपी को सत्ता से दूर कर दिया। बीजेपी के लिए योगी की रैलियाँ आत्मघाती साबित हुई। समाज का एक बड़ा वर्ग धर्म और जातियों की लड़ाई से बाहर आ जाना चाहता है लेकिन योगी ने चुनावों में राम, हनुमान, हिंदु और मुस्लिम का ही राग आलापा। इसके उलट बेशक कांग्रेस भी सॉफ्ट हिंदुइज्‍म के राह पर चल रही हो, लेकिन आम राय स्थापित करने में सफल रही कि वह एक धर्म निरपेक्ष पार्टी है। योगी के बयानों ने और बीजेपी आइटी सेल की करतूतों ने कांग्रेस की इन कोशिशों को मजबूत किया।छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के लिए किसानों की कर्ज़माफ़ी का वायदा काम कर गया।

स्पष्ट तौर पर, अब राजनीति धनबल और बाहुबल के बिना चला पाना एक दुष्कर कार्य हो गया है। लगभग हर राजनैतिक दल का मकसद सत्ता पाना ही रह गया है। जनता असहाय है। उन्हें दिए हुए विकल्पों में से ही अपना नेता चुनना पड़ता है। ज़रूरी है कि कोई ऐसी व्यवस्था हो जहाँ राजनैतिक दलों की नैतिक ज़िम्मेदारी तय हो सके।

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