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बदलता गाँव,बदलते लोग

#मेरी_माटी_मेरे_लोग

जब भी गाँव में आता हूँ,दो-तीन दिन के अल्प वाश में इतना कुछ सीख जाता हूँ कि सौ-सवा सौ पेज का एक संस्मरण लिख सकता हूँ।ईमानदारी के साथ इस बात को स्वीकार करता हूँ कि दिल्ली/इलाहाबाद रहते हुए कभी भी सुबह सात बजे के पहले नही उठ पाता हूँ..आजमगढ़ आने के बाद पाँच बजे के बाद सो पाना संभव नही होता।पशुओं को चारा लगाना,दूध गारना,और सबके जाग जाने के बाद खुद मुर्दा बनकर सोते रहना अच्छा नही लगता,सो न चाहते हुए भी उठना पड़ता है।गाँव में निवास करने का एक बड़ा प्राकृतिक लाभ ये भी है।

फिर शुरू होती है दिनचर्या।गाँव के एक तरफ बलराम चचा द्वारा तुलसी के रामचरितमानस की चौपाइयां “जेहिं के जेहिंपर सत्य सनेहू,सो तेंहु मिलैं न कछु संदेहू” दोहराई जाती हैं जो मुझे अपने लक्ष्य के प्रति निरंतर अडिग रहने को प्रेरित करती हैं तो दूसरी तरफ जगमोहन पंडित द्वारा श्रीमद्भागवत का श्लोक “कर्मन्येवाधिकारस्ते,मा फलेषु कदाचन” मुझे सदैव कर्मयोगी बनने कि प्रेरणा देता है।

दोपहर होते मैं खुद निकलता हूँ ग्राम भ्रमण पर।गाँव के बगल की कुँवर नदी का कल-कल प्रवाह सुनता हूँ,उसमें तैर रहती मछलियों की भाषा को समझना चाहता हूँ।खेत-दर-खेत फैले ईंख की झुरमुटों के बीच बहते वायु के हर सनसनाहट को पढ़ लेना फ़न है मेरा।

पिछले चार-पांच सालों से बहुत कुछ बदलता देख रहा हूँ।बलराम चचा आज भी रामचरितमानस तो पढ़ते हैं पर उन्ही के बगल में घमौनी ले रहा उनका पोता ‘पियवा से पहिले हमार रहलू’ चला देता है।जगमोहन पंडित के कर्मयोग के समानान्तर बजने लगता है..’राजा कयि ला बिआह,तू मोटा जइबा न’।

ग्रामीण नदियों का कल-कल,मछलियों की भाषा और झुरमुटों का मौन संवाद सुनने वाली पीढ़ियाँ अब दूसरी धार में बहना चाहती हैं।हमें ये भी स्वीकार करना होगा कि इनमें हमारी भी पीढ़ियां हैं,हम खुद भी हैं।और सबसे बड़ी बात मानसिकता का पृथककरण है।गाँव वालों को जीवन का सबसे बड़ा आदर्श शहर में बसना,और शहर वालों का आदर्श गाँव है।गर्मी की छुट्टियों में गाँव में शहरियों का आगमन ऐसे होता है,जैसे मंगल ग्रह पर आया जा रहा है।

तेजी से घायल होते इस ग्रामीण संस्कृति के हमलावर हम भी हैं।इसी तरह चलता रहा तो हमारी आने वाली पीढ़ियां बीयर पीकर रात को गांधी के ‘ग्राम स्वराज’ का स्वप्न देखा करेंगी,’गाँव’ शीर्षक से फिल्में बनाएंगी,गाँव शब्द को गूगल करेंगी और इससे बेसी हुआ तो और हमें ‘महान’
केवल इसलिए कहेंगी कि हम बैल से खेत तक जोतना जानते थे,उनमें बैल को डर के मारे छूने तक की कुव्वत नही होगी या फिर तब शायद बैलों का अस्तित्व ही न हो धरती पर।जय हो।

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