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सवाल नए साल का??

#सवाल_नए_साल_का

ज़िंदगी की आपाधापियों के बीच हम हर रोज़ सैकड़ों किस्से बुनते हैं,तो वहीं सैकड़ों अनचाहे किस्से खुद-ब-खुद बुना जाते हैं।खुद-ब-खुद बुने इन किस्सों के सृजनकर्ता भी हम ही हैं,ये अलग बात है कि हम स्वीकार भले न करें।

हर साल 1 जनवरी आते ही नए साल पर देश की विचारधारा तड़ातड़ तीन धड़ों में बंट जाती है।एक धड़ भारतीय संस्कृति और पुरातन सभ्यता के आजीवन रक्षण का जिम्मा थांमते हुए इस दिन नए साल सेलीब्रेट करने का पूर्ण बहिष्कार करता है,ख़ुद को हिंदुत्व के संरक्षण का निरा पुरोधा मानता है।

दूसरा धड़ द्वंद में जीने वाला है और इस धड़ में शामिल अधिकतर लोग समाज के निम्नवर्ग एवम् मध्यवर्ग से हैं,जो संस्कृति को बचाना तो चाहते हैं और चैत,बैसाख और आषाढ़ भी जानते हैं पर बहुलक के प्रवाह में खुद को बचा नही पाते और चाहते/न चाहते हुए भी इस दिन नया साल मना लेते हैं।

इन सब के बीच एक तीसरा धड़ भी है,जिसे भारतीय संस्कृति,सभ्यता,परम्पराओं और प्रथाओं से कुछ नही लेना देना है,जिसे हिंदू/मुस्लिम/सिख/ईसाई और ‘युनिटी इन डायवर्सिटी’ से भी कुछ नही लेना देना है और जो अधिकतर शहरों में निवास करता है
और बड़े गर्व के साथ इस दिन नये साल को सेलीब्रेट करता है,और क्रिसमस की पार्टी भी देता है।

हिंदी पंचांग के अनुसार नया साल चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन पड़ता है जो अमूमन मार्च महीने के तीसरे सप्ताह में पड़ता है।भारत एक पंथनिरपेक्ष(साभार- प्रस्तावना,भारतीय संविधान) राष्ट्र है,याद रहे हिंदू राष्ट्र नही है।भारत विविधताओं,बहुलसंस्कृति और अनेकताओं में एकता का देश है।इस्लामिक संस्कृति में महीनों के नाम मुहर्रम ,सफ़र,रवीउल-अव्वल,रवीउल-आखिर……..है।ईसाईयों में जनवरी,फरवरी…..है।और इस तरह हर धर्म/संस्कृतियों के अपने अलग-अलग नाम हैं,नये साल आने की अलग-अलग तिथि/तारीख है।

अब आते हैं मूलप्रश्न पर कि मनाया जाय या न??पहली बात तो बड़ी तेजी से लोप होते हिंदी पंचांग और इसके नये साल को,महज़ हिंदुत्व के मापकों से न मापा जाय।
ये केवल हिंदू धर्म की चिरस्थापित परम्परा का लोप नही है,ये लोप है उस भारतीय संस्कृति का जो गाँवों में बसता है,खपरैल पर फरने वाले कोंहड़े और लौकी की तरकारी खाता है,गाय/भैंस का दूध गार के पीता है और गमछा तानकर शान से चलता है।ये लोप है,उस पनपती नवीन शिक्षा व्यवस्था की जहाँ राष्ट्रगान के बजाय अंग्रेजी के हाऊ-हाऊ का गीत गवाया जाता है,ये लोप है उस सभ्यता का भी जहाँ छान उठाने के लिए सुबह-सुबह पूरा गाँव जुट जाता था और अब पड़ोसी के मरने का भी पता पड़ोस वालों को ही नही चलता।और इन्ही बिलाती संस्कृतियों के धुंध में हिंदी पंचांग का नया साल कब छिप गया पता ही नही चला!!

हिंदी कैलेंडर के इस नये साल के रक्षकों को पहले ऊपर गिनाई गयी इन सभी बिला रही संस्कृतियों को बचाना चाहिए(मुझे भी),अन्यथा पाश्चात्यवाद के आंड़ में अभी बहुत कुछ बिलाना बाकी है,बहुत कुछ बिला भी रहा है।और सोचिए क्या हमारे आह्वान/निवेदन करने से क्या लोग एक जनवरी को नया साल मनाना छोड़ देंगें???

समय के साथ बिंबों के प्रतिबिंब नये रूप धरते हैं।सूरज की दिशा बदलने के साथ ही प्रतिबिंबों का आकार बदल जाता है।कुछ सपनों के मरने से जीवन नही मरा करता है।लेकिन बचे हुए सपनों को बचाने की कवायद भी होती रहनी चाहिए।चैत में धूमधाम से मनाया जाएगा नया साल,पर एक जनवरी को भी मुस्कुरा लीजिए।आ नो भद्राः क्रतवो यन्तु विश्वतः।पर नये साल की आंड़ में फिर वहीं मैं छोड़ता हूँ ….बचाइए गाँव को,बचाइए खपरैले के कोंहड़े को,बचाइए भोजपुरी,अवधी,मगही,मैथिली को,बचाइए पगडंडियों के किस्सों को,बचाइए गुल्ली और गमछे को….नही तो फिर कभी चैत वाले नए साल की तरह इन्हे भी बचाने के लिए आंदोलन छेड़ना होगा,और जो विफल होगा।जय हो।

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