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21वीं सदी का भारत तेजी से “विनाश” की ओर बढ़ रहा है : विजय कुमार रॉय

21वीं सदी का भारत तेजी से “विनाश” की ओर बढ़ रहा है : विजय कुमार रॉय

21वीं सदी के दूसरे दशक में डेढ़ लाख से अधिक सरकारी स्कूलों को बंद कर दिया गया. आपको झटका लगा? नहीं लगा? क्यों नहीं लगा? खुद से पूछिये!
चलिये मान लेते हैं कि आपको झटका लगा तो आपने क्या किया? क्या सोचकर किया? कितना किया? खुद से पूछिये!

आपके, आपके लिए सभी सवालों के जवाब आप खुद ही ढूँढिये! नहीं ढूंढ सकते तो आप मान क्यों नही लेते कि आप “मर” चुके हैं? क्या सांसों का चलना ही “जीवित” होने का प्रमाण है? जीवित हैं तो खुद से, खुद के लिए पूछे गए सभी सवालों का जवाब ढूँढिये और खुद को परिभाषित कीजिये कि आप क्या हैं? किस दिशा में जा रहे हैं? चूंकि, 21वीं सदी का भारत जिस दिशा में जा रहा है वो कतई जीवित समाज की पहचान नहीं हो सकता!

21वीं सदी का भारत तेजी से विनाश की ओर बढ़ रहा है. शिक्षा मानव के सर्वांगीण विकास का आधार होता है. शिक्षा के बिना किसी भी समाज, देश की उन्नति की कल्पना कैसे कर सकते हैं आप? शिक्षा जड़ है और इसके बिना वृक्ष(भारत) का तना, शाखा, पत्ती, फूल,फल सब सूख रहा है……जब शिक्षा ही नहीं तो विनाश सुनिश्चित है.भारत को विनाश की ओर ले जाने में सरकारें, मीडिया, समाज सबका दोष है लेकिन सबसे अधिक दोषी मैं समाज को ही मानूंगा. जीवित समाज ही नेतृत्व व सिस्टम को सही रखता है, पीछे-पीछे चलने का आदी अंधा समाज नहीं.

स्कूलों को बंद करने के पीछे सरकार का तर्क है कि इन स्कूलों में बच्चे कम थे, नहीं थे, पलायन कर दूसरे स्कूलों में चले गए, अनुपस्थिति… वगैरह वगैरह! दरअसल, ये तर्क नहीं “बहाना” है जी! ये बहाना है बच्चों को शिक्षा से वंचित रखने का वरना सरकार इन स्कूलों में किस वजह से ये समस्याएं आ रही है उसे समझ कर, दूर करने का प्रयास करती न कि स्कूल को ही बन्द कर देती. लेकिन, हमें क्या मतलब? हम पैसे वाले हैं, अपने बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ा लेंगे….लेकिन उन बच्चों का क्या जिनके मां-बाप मुश्किल से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाते हैं या भूखे भी सो जाते हैं? वो कैसे पढ़ेंगे? स्कूल बंद करना उन्हीं वंचितों, कमज़ोर तबकों के खिलाफ शिक्षा छीनने जैसी घिनौनी साजिश है, कुकर्म है. क्या हम सरकार को स्कूल बंद करने के बजाय उसमें संसाधन उपलब्ध कराने के लिए मजबूर नहीं कर सकते? बच्चे स्कूल में कैसे पहुंचे, सरकार को इस दिशा में काम करने के लिए मजूबर नहीं कर सकते, कैसे उनकी उपस्थिति बनी रहे इसके लिए प्रयास नहीं कर सकते?

चलिये आप कुछ नहीं कर सकते! आपके हाथ मे कुछ नहीं है. कॉरपोरेट-सामंत के संगीतबद्ध किये तथा मीडिया के आवाज में सेक्युलर-कम्युनल गीत का आनंद लीजिये तब तक बिना झटके वाले साथियों को हम “विश्वगुरू” की सैर कराते हैं. विश्वगुरु बिना शिक्षा के ही बन जाइयेगा? नहीं, आपको शिक्षा की स्थिति तो देखना पड़ेगा… देख लीजिये थोड़ा सा वक़्त निकाल कर..!

भारत की स्कूली शिक्षा पर एक नज़र डालिये:

वैश्विक शिक्षा निगरानी रिपोर्ट 2017-18 की मानें तो भारत में 8 करोड़ 80 लाख से अधिक बच्चे स्कूली शिक्षा से बेदखल हैं. इसे आप सरकार व कॉरपोरेट तंत्र के द्वारा “बेदखल कर दिया गया” भी कह सकते हैं. ये आंकड़े नहीं बल्कि झन्नाटेदार तमाचा है.

सहस्त्राब्दी विकास का लक्ष्य लेकर 2000 में चले थे हम, 2010 में बुनियादी शिक्षा दिलाने की घोषणा कर दी. 1 अप्रैल, 2010 से शिक्षा का अधिकार कानून लागू है जिसके अंतर्गत 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त, अनिवार्य व गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने का मौलिक अधिकार प्राप्त है. प्रति एक किलोमीटर में एक स्कूल व सभी शैक्षणिक संसाधनों की पर्याप्त व्यवस्था करना सरकार की जिम्मेदारी है. शुरुआत में इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए तीन वर्षों का समय निर्धारित किया गया बाद में ज़मीनी स्तर पर लागू न हो पाने के कारण इसे अगले दो वर्षों के लिए बढ़ा दिया गया. इस बीच भारत की केंद्रीय सरकार भी बदल गई. बदल गई का मतलब समझते हैं न…पकौड़े वाली सरकार आ गई जो नाली में ही मुंह घुसाये रहती है.

गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए अच्छा भवन, पर्याप्त कमरे, शौचालय, शैक्षिक, खेलकूद सामग्री जैसे संसाधनों के साथ जो सबसे महत्वपूर्ण है वो है योग्य शिक्षकों की पर्याप्त व्यवस्था! अन्य सभी संसाधन तभी सार्थक माने जायेंगे जब बच्चों को शिक्षा देने के लिए योग्य शिक्षक उपलब्ध/मौजूद रहें, जब शिक्षक ही नहीं तो सब बेकार है.

भारत के स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है. मार्च 2017 तक के आंकड़ों के अनुसार, स्कूलों में लगभग 10 लाख शिक्षकों के पद खाली हैं. सबसे अधिक उत्तर प्रदेश में 2.24 लाख प्राथमिक शिक्षकों के पद खाली हैं, दूसरे नम्बर पर बिहार है जहाँ 2 लाख से अधिक सिर्फ प्राथमिक शिक्षकों के पद खाली हैं. माध्यमिक व उच्च शिक्षा के लिए शिक्षकों के खाली पड़े कुल पदों की गणना की जाए तो यह आंकड़े 3 लाख(कुल) से अधिक भी हो सकते है.
ये वही बिहार है जो कभी ज्ञानस्थली के रूप में जाना जाता था. इसके गौरवशाली इतिहास पर हम आज भी कहीं दहाड़ कर चले आते हैं लेकिन मौजूदा दयनीय शिक्षा व्यवस्था पर मुंह नहीं खुलता. जब शिक्षक ही नहीं रहेंगे तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कौन देंगे? बिहार सरकार की कार्यशैली देखकर लगता है कि इन्होंने नैनिहालों का जीवन बर्बाद करने का ठेका लिया है. नीतीश कुमार बड़ी बेरहमी से बोलते हैं हमने 3-4 लाख शिक्षकों की बहाली कर दिया है लेकिन वो भूल जाते हैं कि उन्होंने जो बहाली की उनमें बड़ी मात्रा में फर्जी, अयोग्य व निक्कमें शिक्षक हैं जिनके कारनामे अक्सर सुर्खियों में रहते हैं. कुल कार्यरत शिक्षकों में 57 फीसदी नियमित व 58 फीसदी कॉन्ट्रैक्ट टीचर पढ़ाने की योग्यता नहीं रखते. इनकी अनुपस्थिति दर 20 फीसदी है. अन्य गैर-शैक्षणिक कार्य भी इन शिक्षकों के भरोसे ही है.
इस तरह की “बेकार” शिक्षा व्यवस्था है नीतीश कुमार की. इसके अतिरिक्त शिक्षकों के जो दो लाख से अधिक शिक्षकों के पद खाली हैं, उसका गुणवत्तापूर्ण शिक्षा पर पड़ने वाला कुप्रभाव है, वो अलग!

इसके अलावे पश्चिम बंगाल में 87,000, झारखंड में 78,000, मध्यप्रदेश में 66,000, व छत्तीसगढ़ में 48,000 शिक्षकों के पद खाली हैं. माध्यमिक शिक्षकों की सबसे अधिक कमी जम्मू कश्मीर में है.

भारत में सरकारें शिक्षा को बर्बाद करती रही हैं. सरकारी नेतृत्व व कॉरपोरेट गठजोड़ का साझा उद्देश्य भारत की जनता को मूर्ख, असहाय व निकम्मा बनाकर उसका शोषण करना है. उसके इस उद्देश्य में सबसे बड़ी बाधा शिक्षा, लोगों का शिक्षित होना है. शिक्षा को बर्बाद करने के लिए वो हर सम्भव प्रयासरत हैं और काफी हद तक इसमे सफल भी हैं. पूंजीवादी व सामंती गठजोड़ के बीच एक तीसरी शक्ति भी है…
15 से 64 वर्ष के बीच का एक कार्यशील वर्ग जो काफी हद तक उस गठजोड़ को चुनौती दे सकता है लेकिन अफसोस की ये वर्ग दिशाहीन है. इस वर्ग में भी 20-30 साल का युवा वर्ग सबसे अधिक महत्वपूर्ण है. इन्हें मालूम ही नहीं कि हमे जाना किधर है…ये पीछे-पीछे भागने वाले बन गए हैं या बना दिये गए हैं…?जो भी हो लेकिन इतना तो मैं कह ही सकता हूँ कि पूँजीवाद व सामंतवाद की जुगलबंदी ने इसे दिशाहीन बना दिया है.!

उच्च शिक्षा की स्थिति आपको वैश्विक स्तर पर, सर उठाने नहीं देगी :
विकसित देशों में कुल बजट का एक बड़ा हिस्सा एजुकेशन पर खर्च किया जाता है वहीं भारत में कुल जीडीपी का मात्र 4 फीसदी ही खर्च किया जाता है. शोध कार्यों में तो ये 1 फीसदी से भी कम है.
2018-19 में शीर्ष 100 इंस्टिट्यूट में जहां अमेरिका की 51 इंस्टीट्यूट शामिल हुई वहीं भारत की Indian Institute of Science, 420वें नम्बर पे रही.
जहां की सरकारें शिक्षा को “बेकार” समझती हो वहां इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं कर सकते आप! संसाधनविहीन संस्थान क्या कर सकती है? अन्य संसाधनों की बात छोड़ सिर्फ शिक्षकों की बात करें तो केंद्रीय विश्विद्यालयों में 33 फीसदी, आईआईटी में 34 फीसदी शिक्षकों के पद खाली हैं. राज्यों के विश्विद्यालयों में कितने शिक्षकों के पद खाली हैं इसका कोई आंकड़ा नहीं है. बिना गुरु के ही विश्वगुरु बनेंगे हम!
बाकी, डंका बजाइये…विश्वगुरू तो हइये हैं हम!

विजय कुमार रॉय
स्वतंत्र टिप्पणीकार

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