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जानिए निज़ामुद्दीन दरगाह में क्यों होनी चाहिए महिलाओं की एंट्री

निजामुद्दीन दरगाह

कोई भी धर्म हो सैद्धांतिक तौर पर व्यक्ति की स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व जैसे मानवीय मूल्यों में विश्वास करने के दावे करते हैं। कभी किसी धार्मिक पुस्तक में व्यक्तियों के बीच भेदभाव की बात सामने आती है, तो धार्मिक प्रमुख झट से कह देते हैं कि उसका आशय ऐसा नहीं, बल्कि उसका अर्थ कुछ और है। फिर वे अपने हिसाब से उसकी व्याख्या करते हैं। किसी भी धर्म के प्रमुख हों, वे यह स्वीकार नहीं करते कि उनके धार्मिक पुस्तक में कुछ भी गलत या अव्यावहारिक लिखा हो सकता है।

इसी प्रकार धर्म की कोई भी परंपरा हो, धार्मिक प्रमुख मसलन मुल्ले, पादरी अथवा पुरोहित उसे हमेशा जायज़ ठहराते रहे हैं। भारत के इतिहास में नज़र डालने पर हम देखते हैं कि भारत में सत्ती प्रथा, बाल विवाह, जाति-वर्ण व्यवस्था, बाल दासता आदि कुरीतियां रहे हैं। विधवा विवाह पर रोक, अंतरजातीय विवाह पर रोक, महिलाओं को पर्दे-बुर्के में तथा किसी खास तरह के वस्त्रों आदि में रहने के लिए मजबूर करना जैसी बातें भी रही हैं, उनमें से कुछ आज भी हैं।

हालांकि यह भी सत्य है कि रूढ़ परंपराओं को सुधारने का काम हमेशा मानवीय मूल्यों और आधुनिक विचारों से प्रेरित लोगों ने किया है। उसी का नतीजा है कि आज विश्व के कई देशों में मानवाधिकार और मौलिक अधिकार जैसे मूल्य हैं, जिनको कानूनी संरक्षण भी प्राप्त है। भारत ऐसे प्रगतिशील देशों में शामिल है।

आज कई ऐसी परंपराएं जारी हैं, जिनको मानवीय और समानतामूलक नहीं कहा जा सकता। खासकर महिलाओं को लेकर यह समाज और धर्म हमेशा भेदभाव करता रहा है। हम ज़्यादा दूर ना भी जाएं, तो केरल के सबरीमाला मंदिर और महाराष्ट्र के शनि शिगणापुर मंदिर में महिलाओं के प्रवेश को देख सकते हैं। हिन्दू धर्म के प्रमुख और मंदिर के (पुरुष) महंत हमेशा महिलाओं के प्रवेश को लेकर आपत्ति जताते रहे हैं। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद अब कानूनी तौर पर तथा धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के तहत वे वहां जा सकती हैं।

निजामुद्दीन दरगाह। फोटो साभार: Getty Images

मुस्लिमों की बात करें तो मुंबई के हाजी अली में भी महिलाओं के प्रवेश पर रोक का मामला कुछ साल पहले बहुत गरमाया था। हालिया मामला है जब दिल्ली के निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह में औरतों के प्रवेश को लेकर पुणे में कानून की पढ़ाई करने वाली झारखंड की तीन लड़कियों ने दिल्ली उच्च न्यायालय में एक पीआईएल दायर किया है। उन्होंने दरगाह में औरतों के प्रवेश को लेकर न्यायालय से यह अपील किया है कि महिलाएं क्यों उस दरगाह में प्रवेश नहीं कर सकतीं।

उन्होंने भारतीय संविधान प्रदत व्यक्ति की समता के अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार आदि का हवाला दिया है और दरगाह में प्रवेश पर महिलाओं की रोक को भेदभाव वाला बर्ताव माना है। इन लड़कियों की याचिका में यह भी दलील दी गई है कि इसी प्रकार की रोक पूर्व में हाजी अली और सबरीमला मंदिर में भी प्रवेश को लेकर था।

धर्म के आधार पर इस तरह का भेदभाव दरअसल कोई नई बात नहीं है और ना ही उसके विरुद्ध संघर्ष ही नया है। समाज में व्यक्ति द्वारा बराबरी और सम्मान पूर्वक जीने की लड़ाई इतिहास में कई आंदोलनों और क्रांतियों का जनक रहा है।

दरअसल, समाज में कमज़ोर वर्गों के साथ हमेशा शोषण और भेदभाव किया जाता है। वही समाज का सत्तासीन वर्ग सता पर काबिज़ रहने के लिए धर्म और परंपरा को शोषण और भेदभाव के लिए इस्तेमाल करता है। चूंकि सत्ता का सबसे प्रमुख हथियार धर्म है, ऐसे में चाहे दलित हो या महिला, उनको दोयम नागरिक समझने के लिए धर्म और परंपरा दबाव बनाती हैं।

निज़ामुद्दीन दरगाह की प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार: Getty Images

लिंग, जाति, वर्ण, नस्ल, रंग, जन्म और शारीरिक बनावट आदि के आधार पर कमज़ोर वर्गों के साथ भेदभाव किया जाता है। आंबेडकर का उदाहरण ही ले लीजिए जिन्होंने दलितों का सार्वजनिक तालाब में पानी पीने और मंदिरों के प्रवेश के लिए आंदोलन चलाया था। यहां भी भेदभाव और शोषण का आधार जाति-वर्ण था।

महिलाओं के साथ भेदभाव के आधार लैंगिक हैं। धर्म और पितृसत्ता उसमें बड़े हथियार हैं। बात सिर्फ हिन्दू धर्म की नहीं है और ना ही सिर्फ महिलाओं की। सभी धर्म शोषण और भेदभाव के लिए धर्म का इस्तेमाल करते हैं। इसलिए जब तक धर्म और उपासना स्थल पर किसी खास लिंग, जाति, वर्ण आदि का कब्ज़ा है, भेदभावपूर्ण व्यव्हार जारी रहेगा। ऐसा इसलिए क्योंकि सत्ता और अधिक सत्ता चाहता है।

आज 21वीं शदी में भी महिलाओं द्वारा मंदिरों और दरगाहों में प्रवेश को लेकर कानून का सहारा लेना और आवाज़ बुलंद करना, यह दिखाता है कि प्रतिगामी और शोषक सत्ता अपनी सामंतवादी और भेदभाव वाली सोच बदलने को तैयार नहीं है। आज भी भारत के किसी भी मंदिर में महिलाओं का प्रवेश वर्जित होना, मस्जिदों में अथवा दरगाहों में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाना अमानवीय मूल्य है।

किसी मंदिर में एक दलित अथवा महिला के प्रवेश के आन्दोलन पर मुस्लिम समुदाय का नेता बड़ा खुश होता है। वह हिन्दू धर्म की आलोचना करता है लेकिन जब मस्जिद और दरगाह में प्रवेश को लेकर कोई बोलता है, तब बहुत दुखी होता है।

इसी प्रकार जब मुस्लिमों में बुर्के पर, तीन तलाक पर बात होती है, तब एक हिन्दू बहुत खुश होता है और कहता है कि देखो इस्लाम में महिलाओं की कितनी दोयम स्थिति है, लेकिन अपनी धर्म में कुरीति और भेदभाव वाली परंपरा से उसे बड़ा मोह होता है। धर्म, सम्पति, विवाह, अधिकार आदि को लेकर महिलाओं के प्रति पुरुषों का यह जो डबल स्टैंडर्ड है, वह सिर्फ अपनी सत्ता बचाने को लेकर है।

ऐसे भेदभाव वाले धर्म और पितृसत्ता पर कानून और तर्क से चोट करना ज़रूरी है। इस लड़ाई में हर वो प्रगतिशील पुरुष-महिला चाहे किसी भी धर्म और समाज से हों, उन्हें एक-साथ आने की ज़रूरत है। वह इसलिए कि सबसे पहले हम इंसान हैं, बाद में स्त्री-पुरुष अथवा हिन्दू, मुस्लिम या नास्तिक।

तस्वीर पतीकात्मक है। सौजन्य: Getty Images

ऐसे में झारखण्ड की उन तीन लड़कियों द्वारा उच्च न्यायालय में दायर की गई याचिका ना केवल एक सही कदम है, बल्कि और लोगों के लिए उदाहरण भी पेश करता है कि कैसे महिलाएं खुद अपने अधिकारों की लड़ाई जोरदार तरीके से लड़ सकती हैं।

उनके द्वारा किया गया यह प्रयास ज़रूर लोगों को यह संदेश देने का काम करेगा कि चाहे सबरीमाला मंदिर हो या निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह, लैंगिक भेदभाव को ध्वस्त करना ज़रूरी है। अपने धार्मिक अधिकारों और लैंगिक भेदभाव के विरुद्ध, इन तीन लड़कियों द्वारा शुरू की गयी लड़ाई के लिए उन्हें एक जोरदार सैलूट तो बनता है।

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