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असंख्य अथक महिला मज़दूरों पर कविता

मै देखता हूं
कीचड़ में डूबी बालाओं को

कामगार महिलाओं को जो हाथ में फावड़ा और
टोकरी लिए, कोयले से सराबोर,

रास्ते के दोनों तरफ नालों से
अवशेष मलबा हटाती हैं
काले पसीने से तरबतर
चेहरे से, बेबसी की कालिख
पोछती हैं।

चिलचिलाती इस धूप की तपिश में
हवा भी काली गर्द झोक जाती है
फिर परत दर परत
शरीर और कपड़े पर, रंग और चढ़ता जाता है।

मैं देख सकता हूं
चमकते सूरज के प्रकाश में
उनके काले जीवन को
पढ़ सकता हूं
उसकी झुर्रियों को,
जो सुन्दर हैं।

वह साठ- सत्तर साल की
वृद्ध औरत, जो एक हाथ से विकलांग
किंतु निर्भीक
रोज़ ही दिख जाती हैं
जो निकल पड़ती हैं तड़के ही
फैक्ट्री की तरफ तेज़ कदमों से
छड़ी ठेगती हुई
एक कर्कश ध्वनि सुनकर
वह लम्बी कर्कश ध्वनि, जो
जीवन संगीत से कोसों
दूर ले जाती है।

मैं सुन सकता हूं, मैं सुन रहा
इनकी खामोशी को
जिनके होठों की पपड़ीयां बेबाक हैं।

मै देखता हूं
काले पत्थरों के इस ढेर को जो
बढ़ता ही जाता है हर रोज़
दिन ब दिन, काली छाया की तरह
जो कम नहीं होता
और बढ़ता जाता है।

मैं महसूस कर सकता हूं
प्रगति के लिए, प्रकृति के प्रति
इस निष्ठुरता को

मैं समझ सकता हूं ! यहां
सामान्य सी लगने वाली
किसी बात को, जिसमें कुछ और भी बात हो सकती है
मै भाप सकता हूं
मशीनों की गड़गड़ाहट और उनके बीच मशीन होते इंसानों की थरथराहट को !!

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