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2018 में किसानों ने साबित किया कि वे भी सत्ता बदलने का माद्दा रखते हैं

Agenda of Farmers Protest in 2018

दिल्ली के जतंर-मंतर पर या किसी भी राज्य की राजधानियों में जब कभी किसान बदरंग कपड़ों, टूटी चप्पलों और मुरझाए चेहरों के साथ अपनी मांगों को लेकर जमा होते हैं तो शहरों में लोगों को उनकी समस्याओं से जुड़ने में वक्त लग जाता है। कभी-कभी तो शहरी जनता उनसे खुद को कनेक्ट भी नहीं कर पाती है।

इसलिए जब किसान अपने आंदोलन में अधिक कठोर हो जाते हैं, अपनी उत्पादित फसल को ही बर्बाद करने लगते हैं तो अर्नगल बयान भी आने लगते हैं। ज़ाहिर है आप उनकी समस्याओं से जुड़ना या समझना नहीं चाहते हैं और उनके तरीकों से नाराज़ होने लगते हैं। जबकि भारतीय समाज में समय-समय पर होने वाली तमाम उथल-पुथल में किसानों की सार्थक भूमिका रही है, फिर चाहे वो आपके सांस्कृतिक उत्सव पर्व-त्यौहार हो या देश की आर्थिक स्थिरता।

किसान और उनके आंदोलनों ने भारत के स्वाधीनता आंनदोलनों में ही नहीं आज़ादी के बाद देश के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आज़ादी के पहले भी किसानों ने अपनी मांगो के लिए जो आंदोलन किए वे गांधी जी के प्रभाव में हिंसा और बरबादी से भरे नहीं होते थे लेकिन आज़ादी के बाद किसानों के आंदोलन कभी हिंसक भी हुए तो कभी राजनीतिक भी हुए।

किसान आंदोलन के इतिहास पर नज़र डाले तो 1874 में महाराष्ट्र का दक्कन का विद्रोह, 1991 में उत्तर प्रदेश में एका विद्रोह, 1920 में केरल में मोपला विद्रोह, 1914 में बिहार में ताना भगत आंदोलन, 1946 में बंगाल का तेभांगा आंदोलन और आंध्र प्रदेश का तेलंगाना आंदोलन, 1847 का बिजोलिआ किसान आंदोलन, चम्पारण सत्याग्रह, खेड़ा सत्याग्रह और बारदोली सत्याग्रह प्रमुख थे।

अंग्रेज़ी राज के दौरान हुए किसान विद्रोह मूलतः औपनिवेशिक राज द्वारा स्थापित शोषक कृषि व्यवस्था के विरुद्ध थे। किसान आंदोलनों ने कृषि व्यवस्था के सबसे शोषित वर्ग के न्यूनतम अधिकार की आवाज़ उठाई। अन्यायपूर्ण लगान, नील की बंधुआ किसानी और बटाईदार को फसल का कम-से-कम एक तिहाई हिस्सा देने की मांग पर चल रहे आंदोलनों ने किसान को एक राजनैतिक पहचान दी।

फोटो सोर्स- Getty

आज़ादी के बाद पहले चालीस साल तक किसानों ने स्वराज में न्याय मिलने का इंतज़ार किया। उसके बाद कर्नाटक में ननजुन्दमस्वामी, महाराष्ट्र में शरद जोशी और उत्तर प्रदेश में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में किसान आंदोलनों का एक नया दौर शुरू हुआ।

यह अपेक्षाकृत मज़बूत भूस्वामी का आंदोलन था। इस आंदोलन का मुख्य मुद्दा था किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी। इस आंदोलन का नेतृत्व वह वर्ग कर रहे थे जिसे राजनीतिक सत्ता में हिस्सा मिला लेकिन जो किसान होने के नाते आर्थिक समृद्धि से वंचित थे। अब तक किसानों के पास केवल ज़मीन थी पर अब उनके पास राजनीतिक सत्ता भी आई। परंतु, इसके साथ-साथ किसानों में समृद्ध किसान और निर्धन किसानों का एक नया वर्ग तैयार हो गया। 90 के दशक में अर्थव्यवस्था की नई गतिशीलता ने मझौले और निर्धन किसान के सामने किसानी से बेदखल होने की समस्या खड़ी हुई।

मौजूदा वक्त का किसान आंदोलन आज़ादी के पहले और अस्सी के दशक के आंदोलनों से अलग ही नहीं है। यह नया विस्तार भी पा रहा है क्योंकि इन आंदोलनों ने किसान की नई परिभाषा पुर्नपरिभाषित भी की है। इस नई परिभाषा में किसान का मतलब सिर्फ बड़ा भूस्वामी नहीं बल्कि मंझौला और छोटा किसान भी है, ठेके पर किसानी करने वाला बटाईदार और खेतिहर मज़दूर भी है।

ज़मीन जोतने वाले के साथ दूध उत्पादन, पशुपालन, मुर्गीपालन और मछली पालन करने वाले को भी किसान के दायरे के भीतर शामिल किया जा रहा है। पहली बार किसान आंदोलन आदिवासी और दलित को किसान की तरह स्वीकार करने को तैयार है। खेती में दो तिहाई मेहनत करने वाली औरतों को अब तक किसान की परिभाषा से बाहर रखा गया था उनको भी शामिल किया गया है।

किसान की परिभाषा का यह विस्तार ज़रूरी था। जैसे-जैसे किसानी सिकुड़ रही है वैसे-वैसे किसानी के किसी एक हिस्से को लेकर आंदोलन चलाना असम्भव होता जा रहा है। हर तरह के किसान को जोड़कर ही नया किसान आंदोलन ऊर्जा प्राप्त कर सकता है।

आज़ादी के बाद के किसान आंदोलन एक तरफ भारत बनाम इंडिया का मुहावरा था तो दूसरी तरफ ज़मींदार बनाम खेतिहर मज़दूर का द्वंद था। नया किसान आंदोलन किसानों के भीतर ऊंच-नीच का वर्ग संघर्ष जगाने की बजाय सभी किसानों को जोड़ने का आग्रह इस दौर की विशेषता है। साथ ही किसान बनाम गैर किसान की लड़ाई से बचने की समझ भी विकसित हो रही है। खेती-किसानी को बचाने की लड़ाई प्रकृति को बचाने की लड़ाई है, जिसमें किसान और गैर किसान एकजुट हैं।

मौजूदा वर्ष में किसान आंदोलनों ने अपनी पुरानी मांगों को नए तरीके से निरूपित किया है। फसल के पूरे दाम का मतलब अब केवल सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य में बढ़ोत्तरी नहीं है। किसान आंदोलनों ने सीख लिया है कि यह मांग बहुत सीमित है और इसका फायदा दस प्रतिशत किसानों को भी नहीं मिलता।

इसलिए किसान आंदोलन अब चाहते हैं कि फसल की लागत का हिसाब बेहतर मूल्य से किया जाये, इस लागत पर कम-से-कम पचास प्रतिशत बचत सुनिश्चित की जाय। साथ ही किसानों ने यह भी समझ लिया है कि असली मामला सिर्फ सरकारी घोषणा का नहीं है, असली चुनौती यह है कि सरकारी समर्थन मूल्य सभी किसानों को कैसे मिल सके? इसलिए नए किसान आंदोलनों की मांग है कि सरकारी खरीद के अलावा भी नए तरीके खोजे जाएं, जिससे सभी किसानों को घोषित मूल्य हासिल हो सकें।

महिला किसान

ठीक इसी तरह कर्ज़माफी की पुरानी मांग का विस्तार कर उसे कर्ज़ मुक्ति की मांग में बदल दिया गया है। सिर्फ राष्ट्रीयकृत बैंक और सहकारी/ग्रामीण बैंक के कर्ज़ से ही नहीं साहूकार के कर्ज़ से मुक्ति की मांग भी अब जुड़ गई है। अब किसान आंदोलन याचक की तरह कर्ज़ माफी की प्रार्थना नहीं कर रहा है। आज का किसान आंदोलन देश को पिछले पचास साल से दिए अनुदान के बदले कर्ज़ मुक्ति के अधिकार की बात कर रहा है। पिछले दो-तीन दशकों से किसानों के बीच संघर्ष करने वाले वरिष्ठ किसान नेता हैं तो साथ में दलित आदिवासी संघर्ष में शामिल कार्यकर्ता भी हैं।

पहली बार किसी राष्ट्रीय किसान समन्वय में महिला नेतृत्व की झलक और महिला आंदोलन के मुद्दों की खनक महसूस हो रही है। पहली बार किसान आंदोलन सोशल मीडिया और नई तकनीकी का इस्तेमाल कर रहा है। किसान आंदोलन एक नए युग में प्रवेश कर रहा है। पिछले डेढ़ महीने में देश भर में किसानों की नई ऊर्जा उभरी है, नया नेतृत्व सामने आया है, नया संकल्प जुड़ा है लेकिन उससे भी बड़ी घटना किसान आंदोलन का बदलता स्वरूप है।

किसान की परिभाषा बदल रही है, किसान नेतृत्व की पृष्ठभूमि बदल रही है, किसान आंदोलन के मुद्दे बदल रहे हैं और वैचारिक सरोकार भी बदल रहे हैं। आज यह बदलाव बारीक महसूस हो सकता है लेकिन किसान आंदोलन के चरित्र में यह बदलाव किसानों की दशा और दिशा बदल सकता है यह सवाल बहुत बड़ा यक्ष प्रश्न है?

किसानी के बारे में एक बात कही जाती है कि दूसरी हर चीज़ इंतज़ार कर सकती है लेकिन खेती नहीं लेकिन सत्ता पक्ष और विपक्ष का रवैया देखें तो सबसे लंबा इंतज़ार खेती का ही हो चला है, इसको बदले बिना किसानी को लाभदायक स्थिति में नहीं लाया जा सकता है।

साल के अंत में हिंदी हार्टलैंड के किसान मतदाताओं ने यह बता दिया है कि तमाम बदहालियों में भी वह बड़ी से बड़ी सत्ता को उखाड़ सकते हैं और भारत के लोकतांत्रिक संविधान ने उनको यह अधिकार दिया है। तमाम सत्ताधीश को सनद रहे कि वो किसान और किसानी की समस्या से मुंह नहीं मोड़ सकते हैं क्योंकि यह केवल उनकी नहीं राष्ट्र की भी समस्या है।

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