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“रावत जी, अगर औरतें देश चला सकती हैं, तो उसकी रक्षा के लिए युद्ध भी लड़ सकती हैं।”

बीते दिनों सेना अध्यक्ष बिपिन रावत का बयान काफी विवादों में रहा लेकिन उसपर चर्चा ना के बराबर की जा रही है। यह बयान क्या था? यह बयान उन्होंने अपने न्यूज़ 18 को दिए गए इंटरव्यू में दिया था। उनके दिए गए बयान में उन्होंने कहा था कि महिलाएं युद्ध की भूमिकाओं में अभी फिट नहीं बैठती और उसके पीछे कई कारण है।

पहला कारण उन्होंने बताया था कि सेना में जितने भी पुरुष है वे खुले में कपड़े बदलते हैं लेकिन महिलाओं के लिए उन्हें अलग से शेल्टर बनाना होगा। इसके पीछे उन्होंने महिलाओं को ही दोषी बताया और कहा कि महिलाएं पुरुषों पर दोष लगा सकती है कि पुरुष जवानों ने उन्हें देखा या उनके साथ दुर्व्यवहार किया। दूसरा कारण यह है कि जितने भी पुरुष जो कि सेना में है वे ग्रामीण इलाके से आते है और वे कभी बर्दाश्त नहीं कर पाएंगे कि एक महिला उनको आदेश दे या कोई भी महिला कमांडिंग पोजिशन में हो। तीसरा कारण यह भी बताया कि महिलाओं को 6 महीने के मातृत्व अवकाश की भी आवश्यकता होती है और अगर ऐसे में अगर सेना को उनकी जरूरत हो और वे मना कर दे तो हंगामा खड़ा हो जाएगा। आखिरी में उन्होंने बोला की अगर कोई महिला को दूसरे देश में बंदी बना लिया जाए तो तब भी हंगामा इस बात पर होगा कि वह महिला है तो उसे बचाना चाहिए।

अब बात करते है कि दुनिया के कितने देशों में महिलाओं को युद्ध की भूमिका में रखा गया है। अगर हम देशों की सूची बनाएं तो हाल ही में अमेरिका ने यह ऐलान किया है कि वह अब महिलाओं को युद्ध की भूमिका में शामिल करेगा। इसके अलावा इज़रायल, कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, न्यूजीलैंड और यूरोप के कई देशों में भी महिलाएं युद्ध में शामिल होती हैं। बिपिन रावत से सवाल यह भी है कि क्या इन देशों की महिलाएं भारत की महिलाओं से अलग है? क्या वे बच्चे नहीं पालती? क्या उन्हें कपड़े नहीं बदलने होते?

अगर हम देखे तो बाकी देशों में लैंगिक असामनता धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है। सवाल यह भी है कि अगर कोई महिलाओं को कपड़े बदलते हुए देख भी रहा है तो क्या इस पर ऐक्शन नहीं लिया जाना चाहिए। क्या एक पुरुष की गंदी मानसिकता की वजह से हम महिलाओं को हर क्षेत्र से दूर रखेंगे? क्या सेना के अध्यक्ष जो पूरे देश की सुरक्षा का दायित्व लिए बैठे हैं वह महिलाओं की सुरक्षा नहीं कर सकते?

उनका इंटरव्यू केवल संकीर्ण व कुंठित मानसिकता का प्रदर्शन कर रहा था। वह मानसिकता जो पितृसत्तात्मक सोच से उपजी है। जो केवल चाहती है कि पुरुष हर जगह हो और केवल उनके हाथों में ही कमान हो और वे जैसे चाहे उस चला सके। बचपन में हर पुरुष व महिला को अलग-अलग ढंग से पाला जाता है। माता-पिता की दी गई शिक्षा दोनों के लिए अलग होती है और जैसे-जैसे वे बड़े होते हैं तो वे दोनों ही अलग होते है। उनका समाज में जो दर्जा होता है वह इसी पितृसत्तात्मक सोच की उपज होता है।

बचपन में महिलाओं को हर उस काम से रोका जाता है जिसमें थोड़ा सा भी जोखिम हो। हम देखते है हर जोखिम भरा काम जैसे बल्ब बदलना, भारी सामान उठाना और जितने भी घर के बाहर के काम होते है वो पुरुष ही करते है। बिपिन रावत ने जो बयान दिया वह बिल्कुल इस समाज से मेल खाता है जिसने पैदा होते ही औरतों और मर्दों के कामों का बंटवारा कर दिया। अगर औरतें देश चला सकती हैं, सदन चला सकती हैं, पुलिस अफसर बन सकती हैं, खेल-कूद में मेडल जीत सकती हैं और सबसे जरूरी वे बच्चे पैदा कर सकती हैं तो वे युद्ध की भूमिका भी पूरे जोश से निभा सकती हैं।

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