डोमेस्टिक वर्कर्स डिसेन्ट वर्किंग कंडिशन बिल 2015, जिसका उद्देश्य घरेलू कामगारों के लिए एक सभ्य माहौल तैयार करना है। इसके तहत उन्हें कई तरह की सुविधाएं प्रदान करने का प्रावधान है। जैसे, किसी भी घरेलू कामगार के साथ जाति, रंग-रूप आदि के आधार पर भेदभाव ना करना, उन्हें एक सुरक्षित और सभ्य माहौल प्रदान करना, उनके लिए न्यूनतम वेतन का निर्धारण करना और बिना किसी भेदभाव के साथ उनकी शिकायतों का निबटारा करना।
सरकार को इस तरह के कानून पर ध्यान देना चाहिए ताकि घरेलू कामगारों के साथ किसी भी तरह की हिंसा ना हो। वे मानसिक और शारीरिक रूप से स्वस्थ्य रहें और उनके अधिकारों का हनन ना हो। दिल्ली लेबर ऑर्गेनाईजेशन के आंकड़ों के अनुसार भारत में घरेलू कामगारों की संख्या करीब 5 करोड़ है, जिसमें से अधिकांश महिलाएं हैं। ऐसे में घरेलू कामगारों के लिए एक सुरक्षित और सभ्य माहौल तैयार करना बेहद आवश्यक है।
परंपरागत तौर पर देखें तो घरेलू कामों जैसे- झाड़ू-पोछा लगाना, कपड़े धोना, खाना बनाना आदि कामों के स्मरण मात्र से ही एक महिला कामगार की छवि उभरती है। आजकल कई पुरुष भी इस तरह के कामों में योगदान दे रहे हैं लेकिन महिलाओं के लिए आज भी यह क्षेत्र बहुत विस्तृत है।
आजकल हर परिवार में डोमेस्टिक हेल्पर रखने की ज़रूरत हो गई है। सरकारी ऑफिसों से लेकर प्राइवेट कंपनियों में लोग डोमेस्टिक हेल्पर्स पर निर्भर हो चुके हैं। यहां काम करने वाले लोगों की संख्या ज़्यादा है जिसका सीधा फायदा उन्हें मिलता है जो इन्हें अपने यहां काम पर रखतें हैं।
घरेलू कामगारों को किसी भी प्रकार की सुविधा नहीं दी जाती है। पैसों की कमी के कारण घरेलू कामगारों का शोषण होता है। घरेलू कामगारों के शोषण का एक कारण यह भी है कि लोग इन्हें समाज का हिस्सा ही नहीं मानते हैं। कई संस्थानों और लोगों को लगता है कि देश के आर्थिक विकास में इनका कोई योगदान नहीं है लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से इनका योगदान सदैव रहता है, जिसे अब प्रत्यक्ष रूप से समझना होगा।
छोटे कस्बों से कई महिलाएं (आदिवासी समुदाय से भी) काम की तलाश में बड़े शहरों का रुख करती हैं। पैसों के लिए ये अपनी सुविधाओं पर ध्यान नहीं देतीं और धीरे-धीरे वे इस दलदल में फंसती चली जाती हैं। इन लोगों की बढ़ती संख्या को देखते हुए आज कई एजेंसियां अपने पांव पसारने लगी हैं। जिनमें से अधिकांश एजेंसियों के पास लाइसेंस नहीं होती है। इन एजेंसियों द्वारा लोगों को बहला-फुसलाकर और पैसों का प्रलोभन देकर लाया जाता है।
कई दफा काम के दौरान महिलाएं मानव-तस्करी के जाल में भी फंस जाती हैं। बड़े-बड़े शहरों में तो घरेलू कामगारों की स्थिति और भी दयनीय है। उनके पास कोई अवकाश नहीं होता है। सप्ताह के सातों दिन उन्हें काम पर आना पड़ता है। कोई बीमार पड़ जाए या घर में कोई त्यौहार हो, फिर भी इन्हें आसानी से छुट्टी नहीं मिलती है। इसके उलट काम पर नहीं आने पर इनकी तनख्वाह काट ली जाती है।
कहीं-कहीं तो सूचना के बिना ही इन्हें काम से निकाल दिया जाता है। कई लोग तो छोटे बच्चों को भी इन कामों में धकेल देते हैं। नतीजतन छोटी उम्र में जहां हाथों में कॉपी-कलम होनी चाहिए, वहां झाड़ू रह जाती है। कई घरेलू कामगारों को शारीरिक और मानसिक रूप से भी प्रताड़ित किया जाता है। कई दफा उनके साथ हिंसा जैसी चीज़ें होती हैं।
जाति और भाषा के आधार पर भेदभाव का सामना तो आम बात है। कई महिलाएं गर्भावस्था के दौरान भी काम पर जाती हैं। बच्चे की डिलीवरी होने के बाद, अपने रोते-बिलखते बच्चों को संभालते हुए वे अपना काम करती हैं।
अपने आस-पास के घरेलू कामगारों से बातचीत के दौरान मैंने पाया कि उन्हें तो अपने अधिकारों के बारे में ज़्यादा जानकारी ही नहीं थी। सरकार की ज़िम्मेदारी है कि इन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक किया जाए। घरेलू कामगारों की सुरक्षा की गारंटी और उन्हें सभ्य माहौल देने की ज़िम्मेदारी सरकार के साथ-साथ हर भारतीय नागरिक की भी है। हमें समझना होगा कि ये लोग भी हमारे समाज का अभिन्न हिस्सा हैं।
अगर ये सभी एक दिन भी काम पर ना जाएं या काम करने से मना कर दें, तब लोगों को कितनी परेशानियां होंगी इसका अनुमान लगाना बेहद मुश्किल है। इस संदर्भ में कुछ सकारात्मक पहल के साथ सरकार को सामने आना पड़ेगा जिससे उनकी ज़िन्दगी में तब्दीली आ सके। चाहे घरेलू कामगार महिलाओं या पुरुषों की बात की जाए, स्थितियां लगभग एक जैसी ही हैं। मेरा मानना है कि सरकार को इन बातों का ध्यान रखना चाहिए:-
नोट: कवर इमेज प्रतीकात्मक है। Source: Getty Images
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