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प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले 42.5% लोग डिप्रेशन से जूझते हैं

डिप्रेशन

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मेरा एक दोस्त, जो हमेशा से हमारे साथ रहा है और अभी साल भर पहले से एक दूसरे शहर में अकेले रहकर एक कंपनी में जॉब करता है। एक दिन अचानक उसका फोन आया और वो बहुत घबराया हुआ था। इससे पहले कि मैं कुछ पूछ पाता, वो रोने लगा और उसी वक्त मिलने के लिए कहने लगा।

वहां जाने पर पता चला कि वह बिल्कुल पहले की तरह नहीं था। उसकी बातों में डर प्रतीत होने लगा था और वह डिप्रेशन के कारण अफीम तक खाने लग गया था। हमने जब उसे साइक्रेटिस्ट से मिलने की सलाह दी तब वो यह बात स्वीकार करने के लिए भी तैयार नहीं था कि उसे मानसिक तौर पर कोई बीमारी है।

उसकी यह हालत हम सभी दोस्तों के लिए एक चिंता का विषय बन चुकी थी और मुझे इसके बारे में जानकारी इकठ्ठा करने और इस पर लिखने को मजबूर कर दिया। उन्ही दिनों ‘नैश्नल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज’ (NIMHANS) के 22वें दीक्षांत समारोह में भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने कहा था कि भारत में जितने लोग किसी ना किसी मानसिक बीमारी से ग्रसित हैं, उनकी संख्या जापान की कुल जनसंख्या से अधिक है।

‘ASSOCHAM’ के 2015 में किए गए सर्वे के अनुसार लगभग 42.5% प्राइवेट सेक्टर में काम करने वाले लोग डिप्रेशन से ग्रसित हैं। वही टाइम्स जॉब के सर्वे के अनुसार 80% जॉब्स में स्ट्रेस होता है।

‘द लांसेट’ की रिपोर्ट के अनुसार आने वाले 10 सालों में खराब मानसिक स्वास्थ्य से गुजर रहे लोगों की संख्या में 20 फीसदी तक इज़ाफा हो जाएगा। जिसका मुख्य कारण संयुक्त परिवारों का टूटना, सामाजिक व्यवस्था का खत्म होना, युवाओं का नोकरी और पढ़ाई के लिए अकेले अलग शहरों में रहना, भौतिकवाद की अंधी दौड़, बच्चों पर अपने सपनों का बोझ लादना, दाम्पत्य जीवन की समस्याएं, बूढ़े माँ-बाप का अकेलापन और मनपसंद जॉब ना होना है।

‘टाइम्स जॉब’ के अनुसार सिर्फ 15% लोग ही अपनी पसंद की नौकरी कर पाते है। टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार भारत की घटिया शिक्षा व्यवस्था और माता-पिता की महत्वाकांक्षाओं के कारण देश का एक छात्र हर घंटे खुदकुशी कर लेता है। NMHS की 2015-16 की रिपोर्ट के अनुसार 18 वर्ष से कम उम्र के 15% छात्र डिप्रेशन से ग्रसित हैं।

सबसे बड़ी समस्या की बात यह है कि भारत में मेन्टल हेल्थ को लेकर लोगों में जागरूकता नहीं है और सामान्यत: लोग इसे समस्या ही नहीं समझते हैं क्योंकि उनके लिए खराब मानसिक स्वास्थ्य मतलब पागल होना है। इसी कारण 10 में 2.5 लोग ही हॉस्पिटल जाते हैं और अगर भारत में मेंटल हॉस्पिटल की बात करें तब हालात और भी ज़्यादा खराब है।

WHO के अनुसार 1 लाख लोगों में से 21.1 लोग भारत में आत्महत्या कर लेते हैं जिनमें 1 लाख लोगों पर मात्र (0.3) मनोचिकित्सक, (0.12) नर्सेज़, (0.07) मनोविज्ञानी और (0.07) सामाजिक कार्यकर्त्ता ही हैं। द लांसेट की रिपोर्ट के अनुसार देश में सिर्फ 443 सरकारी अस्पताल ही हैं।

डिप्रेशन से परेशान युवक की प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार : Flickr

मौजूदा समाज, राजनीति और मीडिया के लिए मेंटल हेल्थ कोई मुद्दा नहीं है। ऐसे में जब तक पूरा समाज इस समस्या के प्रति जागरूक नहीं होगा तब तक मानसिक खराब मानसिक स्वास्थ्य वाले लोग अपनी समस्या बताने में सहज नहीं होंगे। जब तक ऑफिस कल्चर को स्ट्रेस फ्री नहीं कर दिया जाता, जब तक माता पिता अपने बच्चों पर अपने सपने थोपना बंद नही कर देते, जब तक परिवार और मित्र मेंटल हेल्थ को लेकर समझदार नहीं हो जाते, तब तक इससे लड़ पाना मुश्किल है।

समाज की ज़िम्मेदारी होने का यह मतलब नहीं है कि सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होती है। सरकार की ज़िम्मेदारी है लोगों में इसके प्रति जागरूकता फैलाने के साथ ही वैश्विक मानकों के अनुसार मनोचिकित्सकों और अन्य पदों की भर्ती की जाए। शिक्षा नीति को छात्रों के लिए दिलचस्प बनाएं ना कि बोझ क्योंकि जितना वक्त मुझे यह लेख लिखने में लगा उतने समय में 3 छात्र अपनी ज़िन्दगी की जंग हार चुके थे

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